बूँद..
बूँद..
ये इक रोज़ की बात थी
मैं थी बारिश थी और तन्हाई थी
चारों तरफ सन्नाटा था
भारी बारिश चल रही थी
और छत से टपकती बूँद से
जैसे कोई नाता था।
घनेर अंधेरी रात में
मैं बैठी थी मेह में
कोई आता था कोई जाता था
बस यूँ ही लगता था मगर
वहाँ सिर्फ खामोशियों का छाता था।
टिप टिप करती बूँद जो गिरती
इक ऐसा एहसास कराती थी
शांत सावली रात खूबसूरत
कोई नज्म जैसे सुनाती थी।
वो रात अकेली बात घनेरी
जब आज भी याद मैं करती हूं
लगता है इस टिप टिप करती
बूँद से चाहत बुनती हूँ।