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Gordhanbhai Vegad (પરમ પાગલ)

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Gordhanbhai Vegad (પરમ પાગલ)

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ज़िन्दगी

ज़िन्दगी

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अदा कर सकूँ हक़ शुक्रिया का दो आंसू बहाकर ओ ज़िन्दगी 
शुरू करता हूँ एक नई ग़ज़ल आज मैं ये अलफ़ाज़ कहकर

मरहल-ए-ज़िंदगी में यूँ तो कईं आकर चले गए हादसे बनकर
फिर भी तुझको जीया हूँ हर हाल में तुझमें सराबोर होकर

मैं ही हूँ साकी मैं ही शराबी और तेरा ये मस्त मयख़ाना
दावा नए होश और जोश का करता हूँ पुरानी शराब पीकर

झूठी तौबा करके झूठी ही तसल्लियाँ मिली थी ईदगाहों में
ईद मना लेता हूँ हर बार हर दिन फिर एक कसम तोड़कर

कह रहा ये ज़माना की मोहब्बत करके ही बहक गया हूँ मैं
कैसे बताऊँ की तभी तो तुझे जी पाया हूँ खुद को मिटाकर

ये जज़्बातों के ज़ख्मी होने से मिली जो ज़ख्मो की सौगात
मैं तो हर चीज़ को रख देता हूँ दिल के कोने में संभालकर

हर पल में से यूँ तेरा "परम" नतीजा हो कर पेश हो आना
पूरी कर रहा हूँ अब ये गज़ल पूर्ण रूप से "पागल" बनकर


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