फिर से जीवन
फिर से जीवन
जाने किस बात की,
जिंदगी सज़ा पाती है ?
हँसती हुई आँखे क्यों,
फिर से रोने लग जाती है ?
वो जो महसूस कर पाती थी,
अब छू भी नहीं पाती हूँ,
अर्ध आशय लिय व्यर्थ ही,
अर्धांगिनी कहलाती हूँ !
सपने झूठे, अपने झूठे,
लगता है झूठ की ही दासी हूँ मैं,
सावन बरसा, भादों बरसा,
अब किस मोह की प्यासी हूँ मैं !
भयावह उन परछाइयों से,
क्या कभी मुक्त हो पाऊँगी ?
क्या जीवन रहते खुल के,
फिर से मुस्कुरा पाऊँगी ?