उपवास
उपवास
अक्सर पैर से हाथ
और हाथ से पैर तोड़ते हुए
आदत हो गई थी उसे
भूख को समझाने की
कभी मंगलकारी बजरंग का दिन
तो कभी संतोषी का शुक्रवार मान
रख लेता उपवास
वक्र दृष्टि लिए
शनि अमावस तो
आ ही जाती महीने दो महीने में
भूख ढीठ थी
कैसे जानती
खून का , खारे पसीने में
बह जाने पर भी
मुठ्ठीभर अनाज न जुटा पाने की
उसकी मज़बूरी ,
निर्दयी उपवास का भरम भी नहीं रखती
दो निवाले डाल पाता कभी,
तो कभी
म्युनिस्पल्टी के नल से
पानी पीकर
बुझा लेता पेट की आग
मजदूर था,
दिन को ढोता अपनी
पसीने से चिपचिपी पीठ पर
और रात होते ही
आकाश ओढ़ कर
फुटपाथ पर सोते सोते
गिनता अपने गर्दिश के तारे
दूसरे किनारे पर खड़ी
ऊँची इमारतों में उत्सवों की रंगीन रौशनी में
धुँधला जाता कोई तारा ,
करवट बदल कर
घुटने पेट में घुसा कर
पकवानों की खुशबू से
कर लेता पालना
कोई भगवान नहीं देते
उसके उपवास का प्रतिफल।