कागजी विकास
कागजी विकास
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जब ट्रेने
शहर के भीतर
रेंगती हुई
स्टेशन के लिए
बढ़ती हैं
आस पड़ोस
सब कुछ
बयाँ कर
जाता है
लबा लब
भरे नाले
पन्नियाँ
नालियों में
लोटते जानवर
पटरियों तक
पसरते घर
और उनकी
छतों पर
सूखते कपड़े
अचार, पापड़
सब कुछ
एक उस संसार को
गढ़ता है
जो विकास को
कागजी,
संकल्पों को
थोथा
और उन सारे
दिखावटी
शानोशौकत को
ताश के महल सा
सच की हवा से
ढहा जाता है
दिवास्वप्न सा।