कल होगा ना
कल होगा ना
पंछी ने मुझसे कहा-
आसमान भी है,
बहती हवाएँ भी,
फिर पंखो में परवाज़ क्यों नहीं?
पिंजरे के झरोखों से दिखती तो है,
पर हाथ की सरहदों से दूर,
कुछ भी मेरे पास नहीं !
सफेद बादलों के पास,
जब मैं सारस के झुंड को उड़ता देखता हूँ,
दिल चाहता है मैं भी साथ हो लूँ,
पिंजरे की परिधिओं में सिमटी मेरी जिंदगी,
रुआंसी सी हो, मुझे सहलाती हुई,
'कल होगा न' के पंख सहेजने लगती है !
और मैं टकटकी लगाए,
इंतज़ार करने लगता हूँ,
उस कल का,
एक और झुंड का,
शायद फिर मैं भी उनके साथ,
हो लूँ अंतहीन आसमान में,
जी लूँ उड़ते पंखो की जिंदगी,
कतरी आत्माओं की शया से आजाद,
जी लूँ, शायद,
कल होगा ना !