काश मैं भी
काश मैं भी
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सोचती हूँ पंख हाथों में लिए
कि काश मैं भी परिंदा होती,
तो उड़ती-फिरती इस गली
कभी उस गली,
कोई रोकने-टोकने वाले ना होते
कोई दुश्मन ना होता,
दोस्त ही दोस्त होते,
ना धर्म की दीवारें होती,
ना ही कोई सरहद होती।
तुझसे मिलने के लिए उड़ के
तेरे शहर चल पड़ती,
ना यूँ दूरियाँ होती तुझमें मुझमें;
काश हम भी परिंदे होते!