एक ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
ज़िन्दगी भर हम तुम्हारे रास्ते ताकते रहे और
खुद ब खुद कदम तेरी और बढ़ते रहे ...
शाख से टूट के गुल भी जो आये पैरों तले
जब तक थी थोड़ी नमी, महकते रहे..
चमकती रोशनियों में यह महकती महफ़िलें
देखो दिन के उजाले में भी क्या यह ऐसे ही चमकते रहे ?...
आदमी ने अंधेरों से भी काली चादर ओढ़ रखी है
दिल धड़कने लगे जो चेहरे अंगारों की तरह दहकते रहे ...
तुमसे मिलकर ऐसा लगा था तुम नहीं थे औरों जैसे
पर हर सांझ के ढलते ही तुम उनसे भी बदतर बदलते रहे....
यूं तो तुम्हारी चाल में थोड़ा बहकना था शामिल और
हर चाँद के उगते ही तुम और बहकते रहे....
हमने सोचा था छोड़ देंगे तुम्हारी हर राह को
पर दिल का करें क्या कदम खुद ही तुम्हारी और बढ़ते रहे ....
हमने देखा था लोगों को लड़ते तकदीरों से पर
हक़ीकत में हम भी तक़दीर से ही लड़ते रहे ....
इन वीरानी बस्तियों में कभी उजाले ज़रूर आयेंगे
इसी ख्याल में हमारे कदम आगे बढ़ते रहे .....