बचे केवल केदार
बचे केवल केदार
अब तीरथ नहीं तीर्थाटन
अब तीरथ नहीं दर्शन
अब तीरथ नहीं
चित्त का परिमार्जन
अब तीरथ माने अवकाश
अब तीरथ माने रोमांच
अब तीरथ माने पर्यटन
अब पर्यटन नहीं
प्रकृति से मिलन
अब पर्यटन नहीं
स्वयं में अंतर्गमन
अब पर्यटन नहीं
पाँव पैदल भ्रमण
अब पर्यटन माने उद्योग
अब पर्यटन माने व्यापार
अब पर्यटन माने कारोबार
अब देवभूमि केवल देवभूमि नहीं
अब तीरथ केवल तीर्थ नहीं
अब बद्री-केदार केवल धाम नहीं
अब सब के सब
पर्यटन स्थल
अब सब के सब
कारोबारी अस्तबल
काटे पेड़
खोदे पहाड़
उजाड़े जंगल
रौंदी पगडंडियाँ
बनाई काली-चौड़ी
चिकनी सड़कें
दौड़ाई बेशुमार
धुआँ उगलती गाड़ियाँ
अब सब के सब
पिकनिक स्पॉट
हर तरफ होटेल-मोटेल
लग्जरी रिसॉर्ट
अब काहे की पदजात्रा
अब काहे की परिकम्मा
अब काहे की चढ़ाइयाँ
अब काहे की फटी बिवाइयाँ
मुनाफे की हवस ने
लील ली शांति
शहरी चमक-दमक ने
छीन ली कांति
अब न हवा शुद्ध
अब न जल शुद्ध
अब न मिट्टी शुद्ध
अब न श्रद्धा शुद्ध
अब पेड़ क्रुद्ध
मेड़ क्रुद्ध
पहाड़ क्रुद्ध
झाड़-झंखाड़ क्रुद्ध
अब तो गाँव क्रुद्ध
बस्ती क्रुद्ध
हिमालय क्रुद्ध
गंगोत्री क्रुद्ध
अब तो आकाश क्रुद्ध
पाताल क्रुद्ध
कुमायूँ क्रुद्ध
गढ़वाल क्रुद्ध
हुजूम के हुजूम आने वाले
सबके सब भक्त कहलाने वाले
पर इतने कहाँ समाने वाले?
बरस दर बरस
दरकती धरती
बरस दर बरस
सिकुड़ती नदियाँ
बरस दर बरस
उजड़ते जंगल
बरस दर बरस
कटते पहाड़
आखिर कब तक सहते?
अब बस! अब बस!
आखिर कब तक कहते?
कहाँ थमने वाले थे
पूँजी के खेल नंगे?
कहाँ सुनने वाले थे
ये अमीर भिखमंगे?
आखिर एक दिन
आसमान टूट पड़ा
पहाड़ टूट पड़े
नदियाँ टूट पड़ीं
बादल टूट पड़े
बज्रपात, भू-स्खलन
बाढ़-बारिश मूसलाधार
प्रकृति का भीषण प्रहार
भीषणतम पलटवार!
बह गईं सड़कें
बह गईं गाड़ियाँ
बह गईं दुकानें
बह गए होटेल-मोटेल-रिसॉर्ट
बह गए लक-दक बाज़ार
ठप्प हुई बिजली
ठप्प हुए तार
ठप्प हुआ कारोबार
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं
मौते हुईं कई हजार!
हर तरफ
कुदरत का कहर
तबाही का मंजर
आदमी बेबस
बेबस सरकार
राहत-बचाव-लाश-मलबा
कोई यहाँ फंसा, कोई वहाँ दबा
कहीं मदद को हाथ बढ़े
कहीं लोभ-लालच के दाँत गड़े...
कहीं कुछ नहीं बचा साबुत
क्या आदमी, क्या पत्थर, क्या बुत!
इसे सिद्धि कहो
इसे सत्त कहो
इसे संजोग कहो
या कहो इसे चमत्कार
बचे तो
बचे केवल नंदी
बचे केवल केदार!