खुद की खोज
खुद की खोज
बदलते चेहरे
और पीछे भागते साये
बेतरीब-सा सजा हुआ ये वक़्त
और वो धुंधली शाम
हर समय बदलता हूं मैं
या
खुद को खोजने की ज़िद में
नई स्याह में ढल जाता हूं|
यादें
हाँ यादें
रूकती हैं कहाँ
अनवरत-सी अपने पथ पर
नए सामान जुटाकर चला करती हैं
तभी तो
उस शाम से मेरी मुलाकात
हर दफा नई होती हैं
तभी तो
वो ठिठकती हैं उस मोड़ पर
जहां कभी मेरा सारा जहां हुआ करता था
तभी तो
कुछ रातें बेपरवाह-सी
खुली आँखों में यूँ ही कट जाती हैं
मकसद नही हो इनका कुछ फिर भी साथ देती हैं
तभी मैं कूँचे जुटाकर
अपने चेहरे पर मार लेता हूं (फिर भी खुद को ढकने की बेचैनी झलक आती हैं)
फिर किसी नई कहानी की खोज में
बादलों, पर्वटन और झोपड़ियों पर
निगाहे डालता हूं
और किसी नीरव नदी की कल्पना कर
अपनी कलम चलाता हूं...