अफ़साना-ऐ-मोहब्बत
अफ़साना-ऐ-मोहब्बत
बस एक कहानी लिख रही हूँ
मत पूछो कौन हैं पात्र
कहाँ से शुरू होगी
कहाँ ख़त्म होगी बात
लिख रहीं हूँ कि
लिखने से
एक सूकून सा मिलता है,
ज़िस्म की सूखी रगों को
खून सा मिलता है
हर शब्द में जान बसी है
उन दो पागल प्रेमी की,
जिन के घावों को छूने से
आराम सा मिलता है
छू बैठे दोनों एक रोज़
दिल की भीगी दीवारों को,
छत से रिसती बरसातों में
कोहराम सा मिलता है
कुछ कही सुनी
कुछ चुप साधे,
दिल की भंवरी में डूब गए,
जाने क्या ऐसा जो उन दो को
एक दूजे में मिलता था
ढूंढ बहाने दुनिया के
राहों में यूँ मिलना उनका,
बगिया का हर एक कली, फूल
उनके मिलने से खिलता था
सुबहें होती थीं देख नज़र
दिन यादों में जाता था,
शाम का आँचल उन दोनो की
बाँहों में लहराता था
तारों की झिलमिल चूनर
उनको छूने आती थी,
उनके एक इशारे को
चाँद भी इठलाता था
शोख हवा के झोंके में जब
उनका मन घबराता था,
रजनीगंधा का फूल तभी
कुछ संदेशे ले आता था
वो क्या दिन मिश्री, रातें गुड़ सी
हर लम्हा इतराता था,
उनके अधरों की मध पीने
भंवरा भी बल खाता था
वो हुए एक, ज्यूँ एक ही थे
कौन उन्हें बांटेगा,
जिस्मों की परतों के भीतर
दिल उनका ठहर ना पाता था
वो दुनिया से थे दूर बहुत
पर वक्त ने उन्हें छला था,
दे कर पंखों को क़तर दिया
उड़ना भी नहीं आता था
नीले अम्बर की बाँहों में
जाने की तमन्ना और रही,
पर पैर जमाये मिट्टी में
कोई फ़र्ज़ उन्हें बुलाता था
वो गया कहाँ उन्मुक्त कभी
जो उन दोनों का सपना था,
रिश्तों की डगर में छूटा सब
जो उन दोनो का अपना था
परियों की कहानी होती तो
अंत सुहाना होना था,
रूहों के इन अफसानों पे
कुछ और कहा न जाता है
क़िस्मत के खेले में देखो
कौन कहाँ जाता है
ऐसी इस अजब कहानी में
कोई अंत कहाँ आता है
कुछ दीवानों का इश्क़
महज़ पन्नों में सिमट जाता है
पन्नों में सिमट जाता है।