मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
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क्यों खिंचता है मन बार-बार?
एक मधुर पीड़ा सी होती है हर बार?
यह वो धूप उजली सी है?
या मेघों की बदली सी है?
प्रेमी मन का, मन दर्पण है...
ये कैसा आकर्षण है?
जो मिलन से घटता नहीं...
मृगतृष्णा सा बुझता नहीं...
हृदय में धधकता अनल है?
या शांत करता जल है?
आलोडित कर मन चंचल...
काजल मैं, हुई धवल-धवल...
मन हुआ है चन्दन-चन्दन
रे! कैसा है ये बंधन...
हृदय में बसता शिव है, सत्य है?
या मृग्मारीचिका सा छल है, मृत्यु है...