अब तो यहाँ भी
अब तो यहाँ भी
दिल्ली-मुंबई ही नहीं,
अब तो यहाँ भी
साग-सब्जी, नून-हरदी
के आसमानी दाम हैं
दिल्ली-मुंबई ही नहीं,
अब तो यहाँ भी
ट्रैफिक जाम है
दिल्ली-मुंबई ही नहीं,
अब तो यहाँ भी
रातें बदनाम हैं
बस कहने को रह गया है
पिछड़ा इलाका,
अब तो यहाँ भी
वही सब
जिनके लिए
दिल्ली-मुंबई बदनाम हैं!
जल-जंगल, जमीन बचाने के नारे
रोज़ लग रहे हैं खूब मगर
लूटपाट बदस्तूर जारी है
बस कहने भर को रह गए हैं सब आदिवासी,
आदिवासी जैसा अब कोई नहीं है!
हर हाथ में अब अदना मोबाइल नहीं,
महंगा स्मार्ट फोन है
सड़कों पर टुटहरी साइकिल नहीं,
स्कूटियों-बाइकों की भरमार है!
आदिवासी-आदिवासी चिल्लाने का चलन
भले यहाँ पुरजोर है,
आदिवासी के नाम पर
भले यहाँ फलता-फूलता
देशी-विदेशी कारोबार है
पर लक-दक में खुद को
आदिवासी कहलाने को
अब यहाँ शायद ही कोई तैयार है!
झाबुआ, डांग या कहीं और
भले अब भी पिछड़े हों,
यहाँ कमोबेश सब के सब
अब हक-हैसियत में आगे हैं!
आंकड़े जो कहें सो कहें
पर अब यहाँ यकीनन गरीबों के भी
भाग जागे हैं!
अमीरी-गरीबी की खाई पटने में
यकीनन अब भी वक्त लगेगा बहुत,
बरास्ते बंदूक जो हरगिज मुमकिन नहीं
पर बरास्ते बाज़ार ही सही,
समाजवाद आ रहा है यहाँ
रफ्तार से!
हाँ, पड़ी है इस पर
परछाई पूंजीवाद की
बड़े प्यार से!