पहेली
पहेली
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गहन था जब अंधकार,
आदि और अंत से परे,
ना थी मृत्यु ना ही अमरता,
प्रकृति थी बस अव्यक्त, अविनाशी,
घोर तप से प्रकट हुआ,
वो निराकार, "ब्रह्म" सर्वव्यापी,
कारण था बस, कार्य नहीं,
सृजन संकल्प था रचयिता का,
ऊर्जा और परमाणु की उथल-पुथल,
निराकार से साकार हुई,
चेतन सृष्टि और धरातल,
शून्य ही सब और शून्य ही भ्रम,
कर्त्ता भी वह और वह ही कर्म,
संस्कृति का बीज प्रकृति,
अकल्पनीय है आकृति,
कौन है जो अवलोकन करता,
सृष्टि को संचालित करता,
काल से जो बंधा नहीं,
जीवात्मा का वह बीज,
सजीव ना वह निर्जीव,
क्या था पहले और क्या होगा,
कौन है जो बता सके,
उत्पत्ति की पहेली को,
कौन विद्वान सुलझा सके।