लिखी थी कुछ पंक्तियाँ
लिखी थी कुछ पंक्तियाँ
. लिखी थी कुछ पंक्तियाँ
उस रोज़
आख़िरी बार
मिला था जब तुमसे
इधर तन्हा रातों में
अचानक इक ख़्वाब आया
उचट गई नींद
पन्ना वही निकाल कर पढ़ने लगा
कविता जैसी पंक्तियाँ लगी
सोचा इसे कविता में बदल डालूँ
बस थोड़ा श्रृंगार ही तो करना है
शब्दों का
अब छत पर हूँ , उसी पन्ने के साथ
सावन की बूँदें बस थमी ही हैं
मगर ख़ुश्बू अभी बाक़ी है फ़िजाओं में
कलियों में
कोपलों में
वन-वृक्षों में
कोयल की कूक में
पपीहे की टेर में
और दिल की हूक में भी .......
समझ नहीं पा रहा
कुछ जोडूँ इसमें या घटा दूँ कुछ
अब
सीढ़ियों से नीचे उतर रहा हूँ
दूर आसमान में बिजली चमक उठी
जेहन में भी चिराग जल उठे
उठाई कलम
और उस पन्ने पर
आखिरी पंक्ति के नीचे
लिख दिया तुम्हारा नाम
अक्षर फिर से महक उठे हैं
और कविता का श्रृंगार हो गया।
यादें जीवंत हों तो अक्सर
विरह भी ख़ूबसूरत हो जाता है
( गोबिन्द चान्दना )