मृदुला
मृदुला
अल्हड़ सी इक मासूम कली थी
इक गाँव की एक हवेली में
राजकुमारी की तरह पली थी
बड़े बुज़ुर्गों की गोदी में
बड़े भाई पाँच रखवाले थे
माँ एक हज़ारों लाखों में
गय्या बाबा और मौसी दादी
लाई थी प्यार सभी का भागों में
बचपन उसका चंचल था
चढ़ जाती थी पेड़ भाइयों के संग में
कुँआ बड़ा अपने कद से
फाँद जाती थी इक पग में
पर मन था उसका नाज़ुक कोमल
थे ख़्याल बहुत भावुक मन में
उमड़ रहे थे बचपन से ही
भाव कविता के शब्दों में
नाम था मृदुला मन भी मृदुल
थी मृदुल अपने आचरण में
पर धरा था प्राची का उपनाम
कविताओं के प्रकरण में
कुछ उम्र बढ़ी वो जवाँ हुई
रंग रूप से एक थी लाखों में
तन मन से गुणों की खान हुई
थे चर्चे ये सबकी बातों में
लेखनी पे भी चढ़ी जवानी
जो सुने रहे अचम्भे में
उम्र ज़रा सी ही है अभी
पर प्रौढ़ है कितनी विचारों में
अब वक़्त ब्याहने का आया
कुछ दिन रही जिस अँगने में
छोड़ के उसको जाना था
सब की याद समेटे अपने में
बड़ी बहू थी बन के आई
सबसे छोटी थी जो घर में
हर रिश्ते को मन से अपनाया
सबके लिऐ किया, जो था बस में
फिर बेटी एक हुई उसको
ख़ुशियाँ छाई थीं आँगन में
एक बेटी, बहू, बनी थी माँ
सुख की बयार थी जीवन में
कुछ रोज खिलाया ही था उसको
पर किस्मत किसके थी बस में
साथ पति के जाना था
नई जगह नये घर में
छोड़ के नन्हीं सी बेटी को
बाबा दादी के संग में
सूने आँचल से चली गई
त्यागी ममता उनके हक़ में
वनवास समान काटे छह साल
इक दिन यूँ बीता सौ सालों में
गिला नहीं किया फिर भी
कसक दिखती तो थी कविताओं में
फिर एक सुहानी लहर उठी
ख़ुशी की उसके जीवन में
जब नन्हा सा एक फूल खिला
बेटे के रूप उस आँगन में
कुछ वक़्त बुरा जो आया था
बीत गया कुछ सालों में
वापस जीवन में आई ख़ुशियाँ
खिली ममता, जो बंद थी तालों में
परिवार हुआ था पूरा उसका
नहीं कोई कसक अब थी मन में
समय का चक्र यूँ चलता गया
बच्चे बड़े हुऐ थे, मानो, पल में
कल सा ही लगता था वो दिन
जब ब्याह के आई थी घर में
अब बेटी को भी ब्याहने की
बारी आनी थी कुछ दिन में
बेटी की शादी के अरमान
सजने लगे थे अब मन में
पर ईश्वर को क्या था मंज़ूर
किसे पता था भावी जीवन में
रात अँधेरी यूँ आई थी
हँसते खिलते परिवार में
इक अजब रोग ने घेरा उसको
जिसका तोड़ न था संसार में
जीवन अब बन गया था युद्ध
लड़ा जाता था रोज़ अस्पतालों में
पर वो जोड़ के रखती थी हिम्मत
उम्मीद के कुछ टूटे प्यालों में
साहस से उसके दंग थे सब
देखा न था हौसला ऐसा ज़माने में
मुस्कान ले आती थी चेहरे पर
हो दर्द कितना ही मुस्काने में
धीरे-धीरे होती गई शिथिल
था आभास उसे कुछ रोज़ बचे हैं जाने में
इलाज सभी बेकार हुऐ थे
अब कोई और दवा न थी दवाखाने में
एक कलम से ही कहती थी दर्द
न पीछे रहा वो साथ निभाने में
दर्द भी अपने लिखकर उसने
जोड़ दिऐ कविता के खज़ाने में
आ गया था दिन अब जाने का
परिवार खड़ा था सब संग में
हारी थी वो रोग से अपने
पर जीत गई थी जीवन की जंग में
शरीर भले ही चला गया हो
पर बसती है सबके मन में
लिखती है अब भी कविताऐं
बस के बेटी के तन में