मानस-पटल
मानस-पटल
अभी कल ही की तो बात है
हरियाली ही हरियाली थी मन के अंदर
हँसी-खुशी की फुहार में था
कहकहे लगाता हुआ मासूम सा बचपन
मन मयूर था और खुशियाँ आँगन
पैरों में बेफिक्री के नूपुर की थी मधुर छन-छन
ना जाने कब जिंदगी एक शातिर चाल चल गई
मानस पटल पर अंकित ये मनोहारी छवि
ना जाने कब धूमिल पड़ गई
शांत से मन के सागर में तरूणाई के चाँद की
कुछ यूँ पड़ी काली छाया कि
विचारों की सुनामी ने कहर गरज-गरज मचाया
वक्त ने भी अपना पासा कुछ यूँ पलटा
कि उर के रंगमंच पर चिंता को ला पटका
स्थिर चित्त ?
अब तो कल्पना सा लगता है
जीवन की पराकाष्ठा पर पहुँचने की होड़ में
जिजिविषा का पल्लू जीर्ण-शीर्ण सा हुआ लगता है
अब तो अल्हड़ता का अनुपम नृत्य नहीं
ख्यालों का भयावह तांडव होता है
असंतोष,वेदना,प्रतिस्पर्धा के धाराधर में
आत्मसंतुष्टि का अरूण
अपना अस्तित्व निरंतर खोता है
जीवन की इस दिशाहीन आपाधापी में कहीं
धूल -धूसरित सा पड़ा है जीवन का सारांश
आशा और निराशा के तीरों की शर-शैया पर
प्रतिपल विलुप्त हो रहा है अमूल्य जीवनांश
यदा-कदा अनायास ही सजीव हो उठता है ये मंथन
कि काश कहीं से मोती सी पावस की बूँदें
यूँ झमाझम बरस कर हर धूल धो जायें
कि तुष्टि के इंद्रधनुष के रंगों से
मानस पटल का सूना आँचल फिर से सराबोर हो जाए !!