एक रूठा दोस्त
एक रूठा दोस्त
धागा जज़्बात का पकड़े खड़े थे हम दो किनारों पर।
रिश्ता बनाया था जो हमने उम्मीदों के सहारों पर ॥
पर शर्त ऐसी थी कि न में उसे देख सकूँ, न वो मुझे ।
बस भरोसा था, इससे ज़्यादा किसी को कोई क्या सूझे ॥
बस एक दूजे की आवाज़ पर यक़ीन करते थे ।
और दोस्ती के धागे को मज़बूती से पकड़ते थे ॥
पर किसी को इस दोस्ती से जलन हो गई ।
इस धागे की ख़ूबसूरती से किसी को ख़लिश हो गई ॥
उसने उठाया फ़ायदा की हम एक दूजे को देख नहीं सकते थे ।
इस बात का कि हम एक दूसरे पे हद से ज़्यादा यक़ीन रखते थे ॥
आकर उसने चुपके से, वो धागा कपट छूरी से काट दिया ।
हमारे प्यारे दोस्ती के धागे को बाँट दिया ॥
हम एक दूजे को सुन न सकें इसलिऐ बीच में शोर भरा ।
नफ़रत का ज़हर उसने पुरज़ोर भरा ॥
मुझे लगा दोस्त चला गया मुझे छोड़ के ।
दोस्त को लगा मैं चला गया उससे मुँह मोड़ के ॥
हम आगे बढ़ते रहे ,अपने अपने हिस्से का धागा लिऐ हाथ में ।
हम रूठे थे पर फिर भी थे कुछ साथ में ॥
अभी भी इंतेज़ार है तो बीच के इस शोर को मिटाने का ।
जो गलतफहमियों का ज़हर आ गया है, उसको हटाने का ॥
है यक़ीन की रूठा दोस्त फिर मान जाऐगा ।
और बिना किसी गाँठ के ये दोस्ती का धागा फिर से जुड़ जाऐगा ॥