हार की जीत
हार की जीत
हर कोना-अंतरा छान मारा
ऐसी कोई जगह नहीं बची
जहाँ बचे हों उनके निशान
चुन-चुनकर लगाए ठिकाने
उन-उन चीज़ों को
जिन-जिन में मौजूद थीं वें
किसी न किसी शक्ल में
यहाँ तक कि
रंगों के चुनाव तक को लेकर
दागे सवाल, क्या ये रंग
सचमुच तुम्हें पसंद हैं?
और तो और
मेरी आस्था पर भी
लगाए प्रश्नचिन्ह,
क्या सचमुच
तुम्हारे इष्ट देवता यही हैं?
क्या तुम वाकई
इनको मानते हो?
ऐसी कोई बात
ऐसी कोई आदत नहीं बची
जिन पर आशंका न जताई हो!
मेरे लाख कहने के बावजूद
कि मैं तुम्हारा ही हूँ,
उसने मुझे तार-तार किया...
मैं गिड़गिड़ाता रहा कि
मेरे वर्तमान में मेरे अतीत का
दखल नहीं है,
उसने पोत दी
मेरे मुँह पर कालिख,
झूठे हो तुम !
मै भरसक समझाता रहा उसे-
देखो, ये चिनगारियाँ नहीं,
बुझ गई स्मृतियाँ हैं
वह नहीं मानी...
मैं झूठ बोलकर
जीत सकता था,
पर सच बोलकर
हार गया उसे...!