राख
राख
न जाने क्यों
आजकल हर कोई उदास है।
न जाने क्यों
आज हर शख्स खामोश है।
न जाने क्यों
डरा डरा से है आज आदमी।
उसकी आँखों मे
किसी अपने की तलाश है।
इस भीड़ में न जाने
कितने गुम हो गए रिश्ते
ये कैसी भीड़
आज मेरे आसपास है।
जीते जी न आया कोई
आज मौत पर मेरी
दिलो में ये कैसा उल्लास है
लहरो की मानिंद
उछल जाया करती थी यूँ ही
आज टकराकर चट्टान से
जुबां आज क्यों खामोश है।
ये मुर्दों का शहर है श्वेता
हर घर मे छिपी एक जिंदा लाश है।
खूब आग लगाई है
बस्ती में मेरी इन ठेकेदारों ने
जली हुई इंसानियत की
बस राख ही तो सबके पास है।