सोच का पर्दा
सोच का पर्दा
जब सोच का पर्दा पड़ा था मेरी आँखों पर
जब यकीन नहीं था सुनी सुनाई बातों पर,
मैं लबों पर अंगारे लिए देखता ज़िंदगी को
जूनून का पर्दा पड़ा था तब मेरे ख्वाबो पर,
मैं चल पड़ा था जिस मंज़िल की तलाश में
उसके रास्ते थे तिकोने दर्द, नरफत, प्यार के,
मैं राही बनकर चलता रहा तन्हा अकेला
पीछे फूल टूट गए उम्मीद, आरज़ू, विश्वास के,
आज मैं हूँ तन्हा यहाँ खोकर सब संसार पर
मेरे पास है साफ़ आसमान, और ठंडी सांस पर,
अब क्यों है अपनो की फ़िक्र, क्यों है तन्हाई हाथ पर
जब मैं, मैं नहीं न वो तू ही है, इस ज़मी आकाश पर,