छुपती हुई नारी
छुपती हुई नारी
अपने ही आँगन मे साँस ना ले पाए वो
अपने गम को कह ना पाए वो
क्यूँ कुछ डरी , कुछ सहमी सी है,
क्यूँ खुद का ही सामना ना कर पाए वो
जहाँ देखो, उसके लिए हेवान है
क्यूँ वो इतनी परेशान है
वो भी तो फूल है इस आँगन का
फिर भी काँटो से उसकी पहचान है
काँटो के इस दर्द से कैसे बच पाए वो
अपने ही आँगन मे साँस ना ले पाए वो
क्यूँ जगह जगह उसकी आबरू लुटी जाती है
क्यूँ किसी ओर के कसूर की वो सजा पाती है
क्यूँ समाज दरिंदों को सजा नहीं देता ,
क्यूँ बेचारी नारी छुप छुप कर रोती है
क्यूँ अकेली रात के अंधेरे मे निकल ना पाए वो
अपने ही आँगन मे साँस ना ले पाए वो
आओ जरा इस समाज को बदल डाले
आओ जरा संस्कारो को अपने संभाले
आगे कभी नारी छुप छुप कर ना जिए
जरा भारत की तस्वीर बदल डाले