खाक़ ही में निहाँ हुआ
खाक़ ही में निहाँ हुआ
मेरी तुनुक-लफ़्ज़ी से,
वो क़ातिल हैराँ हुआ,
यानी कि बेनवाई ही,
अबसे मेरा ईमाँ हुआ।
उतना ही ख़ुल्द में,
फिर वो हो गया बुलंद,
जितना ख़ल्क़ में नीचा,
ख़ुदाया इंसाँ हुआ।
यूँ हुआ तार-तार दिल,
सीना-ए-गुदाज़ में मेरा,
नाम इसका इक रोज़,
आशिक़-ए-गिरेबां हुआ।
क्योंकर नहीं इख़्तियार,
मुझे वहशत-ए-दिल पे,
फिर बज़्म-ए-यार में,
आज मैं पशेमाँ हुआ।
मिल गयी तन्हाई मुझे,
आज बाज़ार-ए-दहर में,
फिर कुंज में बैठा मैं,
और खूँनाबां-फ़िशाँ हुआ।
भूल गए आलम-ए-दर्द में,
तुझको भी ऐ दिल,
दिल-ए-नाचार, तंगी-ए-दर्द से,
ताक़-ए-निसियाँ हुआ।
मशहूर है सनम तेरा सितम,
बस्ती-ए-चाहत में,
पर तेरा ये सितम, कि सितम भी,
मुझपर कहाँ हुआ।
खड़ा हूँ दर-ए-नार पे,
इजाज़त नहीं पाता हूँ,
कोताहि-ए-क़िस्मत,
कि मैं आज यूँ रिज़्वाँ हुआ।
करें गम्माज़ी कहाँ,
कि वो क़ातिल हमें ज़हर दे,
ये ज़हर बन के लहू,
रग़-रग़ में जब रवाँ हुआ।
तेरा इश्क़ मुझे ज़ालिम,
मरने भी नहीं देता था,
पैग़ाम-ए-तर्क़-ए-उल्फ़त पाया,
मरना आसाँ हुआ।
बहुत रोज़ हुए,
ज़ख़्म नहीं था जिस्म पर कोई,
अब ज़रा खुश हैं कि,
पैराहन ये ख़ूँचकाँ हुआ।
मामूर-ए-इश्क़ मेरा,
ठोकर में गिराकर चल दिए,
आशियाँ न हुआ,
गोया रेत का कोई मकाँ हुआ।
देते हैं वो मुझे वास्ता,
चाहत का कि न कुछ कहूँ,
उनकी रुस्वाई का करके मैं,
ख़याल बेज़बाँ हुआ।
बहता है मानिंद-ए-अश्क़,
आँखों में उतर आता है,
ख़ून-ए-जिगर कुछ रोज़ से,
आब-ए-मिज़ग़ां हुआ।
इक वक़्त था कि मौक़ूफ़ थे,
ग़म-ए-यार पे जीने को,
आज तेरा ग़म ऐ यार,
मेरी मौत का सामाँ हुआ।
हक़ीक़त से मैं अब तक,
बैठा था फेरे रुख़,
जौफ़-ए-दिल में आज,
अस्ल-ए-इश्क़ अयाँ हुआ।
जाने क्या हुआ था कि,
तारीक़ी दिल को रास न थी,
हसरत-ए-ताबिश में,
सूरत-ए-शमा जूफिशां हुआ।
अब क्या ढूँढते हो,
दुनिया में निशाँ मेरे नाक़िद,
ग़र्क़ हुआ साहिल पे मैं,
खाक़ ही में निहाँ हुआ।