संवाद
संवाद
सुनो जी,
अच्छा लगता है तुम्हारा आना!!
यूँ टुकुर टुकुर प्यार से
देखना और बतियाना!!
तुम्हारी आँखों के दीयों से
एक उर्मिल ऊष्मा बहती है
जो मेरे हृदय के सुराखों की
शुष्कता को भर देती है
जीवन की तमाम
रिक्तता बह जाती है!!
संदली खुशबू से भरा
तुम्हारा तरल मन
मेरी आँखों से होता हुआ
उतर जाता है मेरे
पृथ्वी हुए मन पर!!
और जाहन्वी सी तुम
मुझमें बहने लगती हो।
सृष्टि क्रम का यह सिलसिला
मुझे ब्रह्म करता है...
शायद इसिलये ब्रह्मा ने
अपने मानस से तुम्हें
धरा पर भेजा होगा कि
शुष्क हुए क्लांत प्रदेश
सरस हो जाएं तुम्हारी तरलता से।
सुनो गिलहरी तुम
रोज़ ठहरी रहना यूंही
झांकती रहना मेरे
नैनों के द्वार में...!!
मैं रोज़ आया करुंगी और
ले जाऊंगी थोड़ी मिठास
तुम्हारी तरल हुई मेधा से!!
कि लौटा सकूँ सृष्टिकर्ता का ऋण
परों में बाँध कर तुम्हारी
मिठास की खनक
तय कर लूंगी मैं आसमान!!
और तुम्हारा यह मदिर मधुर
हृदय-स्पंदन मेरे परों में बंध के
हवाओं से रिलमिल कर
मन्दिर की घण्टी सा निनादित हो
ब्रह्मा के मानस में पुनः जगाएगा
एक और सृष्टिक्रम की सर्जना की प्यास!!
सुनो गिलहरी सृष्टि की सरंचना में
हम तुम अत्यल्प सही पर
रोज रच ही देते है
अपनी तरल लय ताल से
नई रामायण...!!!