इश्क़ का असर यूँही नहीं उतरता
इश्क़ का असर यूँही नहीं उतरता
इश्क़ का असर यूँही नहीं उतरता,
खुद को खुद में जलाना पड़ता है।
तसव्वुर में बसी उनकी तस्वीर को,
बड़ी हिम्मत से मिटाना पड़ता है।
बात होती अगर ना बात करने की,
तो फिर शायद बात कुछ और होती।
कसम दी थी, ना लौटकर आने की, फिर
इश्क़ में हर वादे को तो निभाना पड़ता है।
चलो खुश हूं, ये सोचकर कि वो खुश है,
कभी खुद को भी बुद्धु बनाना पड़ता है।
फिर रात आती है हमें अकेले तन्हा देखकर,
तन्हाई मिटाने एक कश तो लेना पड़ता है।
हंसना, रोना, याद कर उसे फिर गुस्सा हो जाना,
यार, नशे में थोड़ा पागलपन भी करना पड़ता है।
मालूम नहीं रहता आँख कब लग जाती है ,
कहीं खुल गई तो फिर जाम भरना पड़ता है।
लगता है इतना आसान नहीं भुला पाना,
दोस्त, मर मर के फिर भी जीना पड़ता है।
नजर आ जाए जो वो कभी बीच राह में,
पुरानी हर यादें जैसे उछल पड़ती है खुशी में।
क्यों पालू वहम, क्या वो भी याद करती है ,
बनकर पत्थर फिर आगे बढ़ जाना पड़ता है।
ये इश्क़ का असर है , यूँही नहीं उतरता,
खुद को खुद में बेख़ौफ़ जलाना पड़ता है ।