हमें बहना नहीं, हम खुद बहाव हैं
हमें बहना नहीं, हम खुद बहाव हैं
नदी को बहता देख मैंने खुद को पहचाना,
जब बहाव में ही मैंने देखा अपना ठिकाना।
बहता पानी और दोनों तरफ ये किनारा,
क्या नदी बह रही लिये बस इतना सहारा।
आज जो है यह कल-कल करता जल,
क्या रहेगा हमेशा चाहे आज या फिर कल।
या फिर दिखे यह जो नित्य रहने वाले किनारे,
क्या रह पायेंगे हमेशा बिना किसी के सहारे।
नदी-सा बहना सीखो कहते चतुर सयाने,
पर बहाव में ही अस्तित्व कोई यह न माने।
ना किनारा ना पानी से पत्थर के टकराव में है,
इसका अस्तित्व तो सिर्फ इसके बहाव में है।
जब पानी ना रहे और ना रहे इसका किनारा,
बहाव तब भी रहता छिप के किये बिना इशारा।
बहती नदी जो दिखती है वह तो सिर्फ परछाई है,
बहाव ही वह शक्ति जिससे यह रूप इसने पाई है।
तो नहीं सीखना किसी की तरह बहना अब,
मेरा तो रूप ही बहाव में है जान लिया जब।
शरीर और मन रहे ना रहे चाहे हमेशा यहाँ पर,
लेकिन मैं वह बहाव जो फैला हर एक जगह पर।
नदी के बहाव-सा रूप मेरा छिपी हुई शक्ति है,
जो कुछ भी दिखता यहाँ उसी की अभिव्यक्ति है।
जैसे नदी का बहाव दिखता जब वह पानी से है भरता,
वैसे ही मैं होता हूँ हमेशा पर दिखता जब रूप नया धरता।
जैसे नदी का बहाव हमेशा बना रहता है,
चाहे पानी से भरा हो या जब सूखा पड़ता है।
वैसे ही हम भी फैले इधर-उधर तितर-बितर,
पर दिखते जब शरीर धरते लिये प्रकाश भीतर।
जैसे बहाव में ही सभी नदियों का अस्तित्व होता है,
वैसे ही हम नहीं होते जब तक वह तत्व ना होता है।
वह तत्व वह बहाव कुछ नहीं बस अपना ही स्वरूप है,
जिसमें अकसर उठता कोई मन लिये नया-सा रूप है।
जब एक लहर नदी में उठती है और गिर जाती है,
तब उसी बहाव से नयी लहर बन रूप नया पाती है।
वैसे ही हम यहाँ पर सिर्फ रूप बदलते रहते हैं,
जैसे कागज वहीं पर उस पर बात बदलते रहते हैं।