क़लम पुनः मैं उठाता हूँ
क़लम पुनः मैं उठाता हूँ
जाने कितने प्रश्न हैं दिल में
जिन्हें शब्द नहीं दे पाता हूँ ।
शायद अस्तित्व नहीं इन प्रश्नों का
ना क्षमता मुझमें अभिव्यक्ति की
बस भय छुपा, कोने में किसी
करने को प्रकट घबराता हूँ ।
या रंग हैं इतने जीवन के
कि मूल समझ ना पाता हूँ ।
पराजय भी तो स्वीकार नहीं है
जीवन में ऐसे धिक्कार सही है ।
बार बार दोहराकर सब ये
साहस ख़ुद में भर पाता हूँ ।
या आँखों से ओझल कर सपने
कुछ मैं संतुष्टि पाता हूँ ।
पर देखा जब गहराई में ख़ुद की
मिला इक प्रश्न का उत्तर कुछ यूँ
कि जीवन में कुछ कर जाता हूँ ।
करने को अंकित कुछ अपने निशाँ
आज क़लम पुनः मैं उठाता हूँ ।
क़लम पुनः मैं उठाता हूँ...!