एक संवाद अपनी अम्मा से
एक संवाद अपनी अम्मा से
चाहता हूँ
एक बार
बस एक बार मेरे हाथ
हो जाए लम्बे
इतने लम्बे
जो पहुंच सकें दूर
नीले आसमान
और तारों के बीच से झांकते
आपके पैरों तक
अम्मा
और जैसे ही मैं स्पर्श करूं
आपके घुटनों को
सिर्फ़ एक बार आप
डांटें मुझे कि
बेवकूफ़ राम
चरणस्पर्श पंजों को छूकर
करते हैं
घुटनों को नहीं।
अम्मा सुनिए
अक्सर भटकता हुआ मन
पहुंच जाता है
यादों की रसोई में
और हुक सी उठती है
दिल में
एक बार
पत्थर वाले कोयले
की दहकती भट्ठी के पास बैठूं
धीरे से आकर
डालूं कुछ तिनके भट्ठी में
आप मुझे डराएं चिमटा दिखा कर
प्यार से कहें
“का हो तोहार मन पढ़ै में
ना लागत बा?”
ज्यादा कुछ नहीं
सिर्फ़ एक बार
भट्ठी की आंच में
सिकी
आलू भरी गरम रोटियां
और टमाटर की चटनी
यही तो मांग रहा।
वक्त फ़िसलता जा रहा
मुट्ठी से निकलती बालू सा
यादें झिंझोड़ती हैं
हम सभी को।
कहीं घर के किसी कोने में
कील पर टंगी सूप
उस पर चिपके चावल के दाने
कहते हैं सबसे
यहीं कहीं हैं अम्मा
उन्हें नहीं पसन्द
सूप से बिना फ़टके
चावल यूं ही बीन देना।
अभी भी जब जाता हूँ
घर तो
अनायास मंदिर के सामने
झुक जाता है मेरा सर
बावजूद इसके की आपने
नास्तिक होने का ठप्पा
मेरे ऊपर लगा दिया था।
पर वहां भी आपके हाथों का स्पर्श
सर पर महसूस तो करता हूँ
लेकिन दिखती तो वहां भी नहीं
आप अम्मा।
वैसे
एक राज़ की बात बताऊं अम्मा
बाथरूम के दरवाज़े पर बंधी मोटी रस्सी
मैंने हटाई नहीं अभी तक
पिता जी के बार-बार टोकने के
बावजूद
आखिर उसी रस्सी को पकड़ कर
आप उठेंगी न कमोड से।
अम्मा
आप जो भी कहें
नालायक
चण्डलवा
बदमाश
नास्तिक,
सब मंज़ूर है मुझे
पर एक बार
सिर्फ़ एक बार
खाना चाहता हूँ
आपके हाथों की
सोंधी रोटी
बेसन की कतरी
एक हल्का थप्पड़
और चन्द मीठी झड़कियां।
सुन रही हैं न अम्मा।