छोड़ दूंगी वह गली
छोड़ दूंगी वह गली
औरत ने ही औरत का ना साथ निभाया,
जानकर कि कोख में बेटी है,
एक औरत ने ही गर्भ में उसे,
मरवाने का आदेश थमाया,
बहुत चीखी बहुत रोई माँ कि मत मारो,
मैं अकेली ही उसको पाल लुंगी,
ना बोझ बनने दूंगी कभी,
जीवन उसका मैं ही सँवार लूंगी,
बड़ी मिन्नतें की मगर कानों में,
किसी के आवाज़ ना गूँजी,
विडम्बना ये कैसी हुई,
एक औरत ही औरत की दुश्मन हुई।
आँखों में पानी माँ की भर भर कर आता था,
नन्हीं जान के खोने का डर हरदम सताता था,
ख़ून से उसे वह अपने सींच रही थी,
दुनिया में लाने के हसीन सपने देख रही थी।
दूंगी जनम मैं इस परी को,
सोचकर घर से वह निकल पड़ी,
दृढ़ निश्चय कर लिया उसने,
कि छोड़ दूंगी वह गली।
जहाँ भगवान के आदेश को,
अस्वीकार करते हैं,
और गर्भ में ही एक नन्ही सी,
जान का अंतिम संस्कार करते हैं।
नारी हूँ नहीं कमज़ोर मैं इतनी कि,
अपने अंश को मैं ना पाल पाऊँ,
देकर जनम अपने संस्कारों से,
मैं उसे प्लावित ना कर पाऊँ।
बनेगी परिवार का गौरव वह कि
सब उस पर नाज़ कर सकें,
उसका मान कर सकें और
ऐसी हीन धारणा का,
हृदय से त्याग कर सकें।
नारी हूँ नारी की जान बचाऊंगी,
किसी भी हद से मैं गुज़र जाऊंगी।