मुनिया चाची
मुनिया चाची
मौन रहकर और रोकर मन की व्याकुलता ने रास्ता ये पाया
शून्य जीवन में जो बना गईं, उसकी शब्दों में बयानी को मुश्किल है पाया,
बचपन की यादों की पोटली जो बिखरी चाची का मुस्कराता चेहरा सामने आया,
यूं तो एक चाची और ताई और भी हैं, पर खुद को जिनके ज्यादा करीब पाया,
उन्हें घर पर प्यार से बुलाते थे “मुनिया”, गाँव की यादों को उन्हीं में सिमटी पाया,
अपने पीहर की लाड़ली वो, छोटी चाची ने यहाँ भी सबको अपना बनाया,
श्वेत-पीताम्बर की थी छाया, इकहरी उनकी काया, घर-खेत दोनों जिम्मेदारीयों को बखूबी उन्होने निभाया,
बोली की मधुरता, विचारों की नवीनता, अद्भुत विनम्रता उनकी परछाई में भी इन गुणो को मैंने पाया ,
आम की खटाई, करोंदे का आचार,
रोटी पानी के हाथ वाली, दूध की लस्सी ,
चूल्हे पर पकाती हुई...खेत में खाना लाती हुई...भीगी आंखो में, अपनी यादों में ...उन्हें पाया
गाँव में मेरा आना–जाना कम भले ही होता रहा, चाची का प्यार निखरता ही रहा ,
उनकी बीमारी व उनकी मुस्कराहट की जंग अजीब ही रही
एक माह पहले हुई मुलाक़ात, अंतस में क्या हो, सबसे मुस्कराते मिलते पाया,
अश्रु हैं आंखो में ...और उनकी यादें हैं ...
वो स्वर्ग को करती होंगी अब रौशन, हमें तो उनकी यादों से ही जीवन जगमगाना है।
चाची...को अब यादों में रह जाना है...