अदृश्य मंज़िल
अदृश्य मंज़िल
ग़म को अब तक नहीं बताया गया
टाइमर्स के ईज़ाद हो जाने के बारे में
ना रटाया गया
ख़ुशियों को आवर्तकाल का मतलब
ना साधारण दिनों को बैठने दिया गया
गिनती का पाठ सीखने
ये अफ़वाह है कि ब्रह्माण्ड और प्रकृति रहते हैं अनुशासन में
असल में वो जैसे रहते हैं उसी को
धरती की तानाशाह प्रजाति ने नाम और परिभाषा दी अनुशासन की
पागल जो कहता वो नहीं कविता
या जो बड़बड़ाता है दार्शनिक
दिखने को सूत भर का फ़र्क़ खाई से भी चौड़ा है
पर अदृश्य…
एक अच्छी समानता यह
कि ज़माने से हैं दोनों बेपरवाह
अपनी-अपनी आविष्कृत दुनिया में डूबे
हम रेत में सिर घुसा
इकाई रूप में
मान्यताओं को रक्षित करने वाले शुतुरमुर्ग...
जानकर नहीं चाहते समझना
वर्ना रात में आसमान में आसानी से नज़र आने वाले तारे
खोले बैठे है सच्चाई दुनिया की
बिना आरटीआई की याचिका दायर किये
रचा गया खेल उम्र और याद का है
कि देह से ना रहने के बाद
और कितने बाद तक रह पाता ज़िंदा कोई
वर्ना अमरता वही है
जिसे मृगतृष्णा कहते हैं समझाइश की ख़ातिर
“एकला चलो रे” मंत्र भटकाते हैं
अमित्रस्य कुतो सुखम् के रास्तों पर चलने वाले
जब मिलता है सूत्र कि आनंद भारी है सब सुखों पर
हमारी सारी बहसें हैं
उलझे रहने और समय काटने के लिऐ
सच कहें तो खारिज़ किये जा सकने लायक
असल में अनंत में ही छुपा बैठा है शून्य
कोई सिरा नहीं
न आदि है न अंत
सिर्फ़ एक वृत्त पर चलते रहना है
तलाशने अदृश्य मंजिल
या कारक हैं हम ऊर्जाओं को दूसरे रूपों में बदलते रहने वाले