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Shashikant Das

Tragedy

4.5  

Shashikant Das

Tragedy

सरहदें इंसानो की

सरहदें इंसानो की

1 min
462


थी ये सृस्टि पहले अँधेरे से घिरी, 

शून्य भरे किरण ने इसमें उजाले की उम्मीद भरी

जीवाणु के आगमन ने भर दिया जीवन इसमें, 

प्रकृति के इंद्रधनुष ने बिखेर दिये हर रंग उसमे


फिर बदला समा जब आयी बारी इंसानो की, 

ले आयी परिभाषा अदृस्य सुख सुविधा के उड़ानों की

अपने जरूरतों के लिए इस संसार का स्वरुप बदला,

सामने आई पर्यावरण के हर नियमो को कुचला


बांटा अपना ही इंसानी रूप भिन्न जातियों में, 

किया अनोखा बंटवारा हर वर्ग के अनुयायिओं में

आ गयी व्याख्या सीमा और सरहदों की, 

जिसने दिया जन्म बातें मजहबी सौगादों की


मानवीयता के हर वादें हो गयी इसके समक्ष छोटी, 

झूठे शानो शौकत पे सेकी सबने अपने उत्कर्ष की रोटी

अंतरात्मा में अंकुरित हुआ घृणा और नफरत का पौधा, 

सियासी रंग ने किया अपने ही जवानो के ज़िन्दगी का सौदा


लिख दिया इन रेखाओं ने मानव जीवन में एक खूनी अध्याय, 

बारूद और पत्थर के संग ले आयी है जीवन जीने का आखिरी उपाय

दोस्तों, जीने की गाड़ी आज सही मार्ग के पटरी को है भूली, 

जब इंसानियत खुद ही चढ़ गयी है इन सरहदों की शूली


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