शिर्क की हद
शिर्क की हद
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आज ये जुल्फों कुछ ग़म बिखरा बिखरा सा है
निखार था जिन पे आज वो चेहरा उतरा उतरा है
बरसात ये आँखों से आज फिर क्यूँ बेमौसम हुई
आसमान भी मन का उदासी से फिर से निखरा है
यूं तो कोई होता नहीं महेरबान दिलों पे बेवजह
इश्क़ की राहों पर शिर्क की हद तक कोई गुजरा है
आंधियां भी हुई आज नाकाम इस वफ़ा के दिये पे
भीतर शायद तूफान एक जज़बातों का गुजरा है
"परम "मंज़िल की अब कयूँ करूं मैं फ़िक्र "पागल"
तू साथ है तो फिर न कोई खौफ है न खतरा है