बचपन - एक सुनहरा पल
बचपन - एक सुनहरा पल
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एक कमरे में बंद
एक पिंजरे में कैद,
अब बस यादों के ज़रिये
करूँ बचपन की सैर।
सोचता हूँ कि कैसे ये पल
बीत जाए कैसे भी,
आ जाए कल
सुबह हो जाए कैसे भी।
इस गुमनाम से अंधेरे में
कुछ खो रहा हूँ मैं,
पर याद नही कैसे लेकिन हर
खोई चीज़ के लिए रो रहा हूँ मैं।
आँखो के आगे आई हर आकृति
कहकर अब मुझसे बस इतना जाती
क्यों तूने हमे खो दिया, हम वही है
जो तू बचपन मे छोड़ गया।
क्या जवाब देता मैं उनका
सवाल ये सिर्फ मेरा नही, है हम सबका,
आज भी एक मासूम को देख
बचपन लौट आता है हमारा
वही चंचलता, वही आँखो मे तेज़
चोट लगने मे हो जाते थे, दीवारों मे छेद
लेकिन समय की दीवार को कौन लांघ सकता है,
बीती बातों को कौन वापस बता पाता है,
बस याद आता है वो गुज़रा कल, वो अपनापन
याद आता है वो सुनहरा पल बचपन॥