प्रकृति की मोहब्बत
प्रकृति की मोहब्बत
हवाओं की छुअन से,
उन पत्तों के झूमने में,
उस धूल-सी कण के,
कत्थक से नृत्य में,
उन छोटी-छोटी बूंदों का,
मुझे सिरहाने से चूमने में,
एक मोहब्बत-सा महसूस हुआ,
मुझे भी अपने होने में !
जैसे वो सूखे पत्ते,
गा रहे हों खुशियों के गीत,
जैसे वो पल उनका,
हो ज़िन्दगी का आखिरी पल,
वो डगमगाती लौ,
मोम्बतियों के मुख पर,
लग रहीं जैसे,
प्रकृति के कुछ छंद,
बहकर नदी संग,
वो गीली-गीली माटी,
मुस्कुरा रही अलसाई-सी,
यूहीं मंद-मंद !
मैं दूर खड़ी,
दीवार के सिरहाने,
देख रही,
बिना पलकें झपकाए,
प्रकृति की कलाकृति को,
जैसे कोई चित्रकार,
रच रहा हो इतिहास,
चलता-फिरता,
हिलता-डुलता,
हकीकत-सा !
जिसकी मोहब्बत में डूबकर,
मैं भी तृप्त हो जाऊँगी,
जो है एक इबादत,
एक इनायत,
एक मोहब्बत का संगम !