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Parvej Kodopi

Abstract

3  

Parvej Kodopi

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उड़ान

उड़ान

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क्या है वजूद मेरा, इस जहान में,

यहाँ हर 'परिंदा', उड़ता है आसमान में। 

लगी रहती है हवा, 'नब्ज़' नापने यहां, 

माँगती है हिम्मत, वो हर एक 'उड़ान' में।


हाँ, कोशिशें अलग हैं हर 'उड़ान' की, 

हर 'उड़ान' की मुश्किलें अलग हैं। 

उम्र छोटी है कुछ की, 

ज़मीं से दूर, कुछ उड़ना चाहते हैं। 


नहीं जानते परखना तो रूकावट है 'हवा',  

जो सुलझा लो तो क्या नहीं। 

गहरी यारी है कुछ की हवाओं से, 

कुछ उन्हें तकना जानते हैं। 


'बारिश', एक रूकावट होती काश, 

चंद पल बिता देते शाख में। 

हर पहली 'उड़ान' के लिए पर, 

उसकी हर एक बूंद आस है। 


सिर्फ रूकना ही चुनौती नहीं, 

सोचना है बढ़ना किस ओर है। 

'फैलाव' नहीं परों में तो क्या, 

हौसलों की बुलंदी आकाश है। 


आज़ादी की ऊंचाइयों से भरा, बदले में  

'अठखेलियां' मांगता है आकाश, बस लगान में,  

'रिहाई' के पर खोल, लगान चुकाता,  

यहां हर 'परिंदा', उड़ता है आसमान में।

 

सच है कि,

जाती हैं उड़ानें कुछ, मंज़िलों को, 

कुछ उन रास्तों में ही, गुम हो जाती हैं।  

उन परिंदो की उड़ानों का क्या पर, 

जिनकी कोशिशें उड़ ही नहीं पाती हैं।  


बंद होती हैं जो पिंजरों के पीछे, 

लोहे की 'बंदिशों' में। 

ख्वाहिश तो होती है पर खोलने की,  

पर रह जाती हैं रंजिशों में। 

 

ताकती रहती हैं आसमां को,  

एक बुलावे के इंतज़ार में।  

क्या पता उसे कि आकाश, 

खुला महकता है गुलज़ार में। 


ऐसी ही कुछ उड़ानों को,  

ये इंसान बांधता है। 

लोहे की दीवार रखता है कभी, 

कभी सोच की लगाम गांठता है। 


बंधी है जो गांठ सोच की,  

हटा उन्हें चलते हैं नये जहान में।  

खोलें पर, जिन्हें कोई न रोके,

ताकि हर 'पंछी' उड़े, खुले आसमान में।


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