बुढ़ापे की लाठी
बुढ़ापे की लाठी
कब सोचा था जीवन संध्या
ऐसा दिन दिखलाएगी
कब सोचा था इस जीवन में
यह घड़ी भी आएगी
जिसको अपने हाथ से मैंने
खाना खाना सिखलाया
जिसको मैंने ही पैरों पर
खड़ा किया और चलवाया
जिसको समझा था मेरे है
वह बुढ़ापे की लाठी
कहाँ पता था नहीं वह है
मेरी ज़रूरत का साथी
लेकिन बेटा याद रहे यह
बीत रही जो मुझ पर
चाहे ना चाहे पर कल ये
बीत न जाये तुझ पर