गंगा
गंगा
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गंगा हिमालय से निकलकर,
पर्वतों में टकराकर,
विषमताओं को चीरकर
खेत खलिहानों को सींचकर ,
मैदानों में अविरल बहकर
वनों बीहड़ों से गुजरकर
कल-कल की ध्वनी सुनाकर
निर्मल शीतल बहकर,
मोक्ष दायनी कहलाती है
पापों से मुक्त करते हुये
अविरल वेग रखते हुये
अनंत कोटि वर्षों से,
धरा की प्यास तृप्त करते हुये
बुलंदी से निकलकर
सागर में समा जाती है
तभी जीवन दायनी कहलाती है।।