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Yugesh Kumar

Children Drama Abstract

3  

Yugesh Kumar

Children Drama Abstract

दो-चार पैसों की व्यथा

दो-चार पैसों की व्यथा

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उस बासी रोटी का पहला ग्रास

ज्यों ही मैने मुँह मे डाला था

चिल्लाकर मालिक ने मेरे

तत्क्षण मुझको बुलवाया था

कहा टोकरी भरी पड़ी है

और गाड़ी आने वाली है

लगता है ये भीड़ देखकर

आज अच्छी बिक्री होने वाली है

करता है मन मेरा भी

खेलूँ मैं यारों के संग

पर है ये एक जटिल समस्या

'ग़रीबी' लड़ता जिससे मैं ये जंग

पर है यकीन मुझको की

बापू जब भी आएँगे

दोनो हाथों मे दुनिया की 

खुशियाँ समेटे लाएँगे

पर आज बरस बीते कई

ये सपने पाले हुए

बापू यहाँ होते तो देखते

मेरे पैर-हाथ काले हुए

बापू कमाने परदेस गये

माँ मुझसे बोला करती थी

पर जाने क्यूँ रात को वो

छुप-छुप रोया करती थी

माँ, क्यूँ रोती है, बापू यहाँ नहीं तो क्या

मैं भी तो घर का मर्द हूँ

जब तक वो आते हैं तब-तक

मैं तुझे कमाकर देता हूँ

अरे! नहीं पगले कहकर

वो और फफककर रोती थी

सीने से मुझको लगाकर

वो लोरी गाया करती थी

अब आ चुकी गाड़ी यहाँ

अब मैं चढ़ने जाता हूँ

इन समोसों को बेचकर

दो-चार पैसे कमाता हूँ

समोसा बेचने के खातिर

मैने हर डिब्बे पर चिल्लाया था

की तभी हुई अनहोनी ये ज़रा

मैं एक औरत से टकराया था

बस ज़रा सा लग जाने पर ही

वो मुझ पर झल्लाई थी

पर फ़र्क नहीं पड़ता मुझको

ये तो मेरे हर दिन की कमाई थी

पर होना था कुछ और सही

जो आँख मेरी फड़फड़ाई थी

मेरे गालों पर पढ़ने वाली

वो उस औरत की कठोर कलाई थी

पर क्या करता मैं लोगों

ने कहा आगे बढ़ जाने को

और कुछ नहीं था मेरे हाथों

बस इन आँसुओं को पोंछ पाने को

दो कदम चल कर मैंने

अगले डिब्बे पर कदम जमाया था

क्या? इस बच्चे के आँसू मोती नहीं

केवल उसका साया था

पर व्यर्थ समय नहीं मुझको

माँ को क्या जवाब दूँगा

इससे अच्छा है कि मैं

दो-चार पैसे कमा लूँगा|


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