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Divik Ramesh

Others

3  

Divik Ramesh

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वापसी पर

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      हालाँकि श्रीवास्तवा ने मुझे बता दिया था कि मणि आज कल दिल्ली में ही है लेकिन मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि उससे अब मिला भी जा सकता है। दस साल पहले की वह मणि कैसी हो गयी होगी यह प्रश्न मन में उठा ज़रूर था लेकिन बिना कोई समाधान ढूँढे ही। अब मैं अधिक से अधिक इतना भर याद रख सकता हूँ  कि मणि मेरी पहली पत्नी थी और अब नहीं है - बल्कि अब किसी और की है, शायद मिस्टर बत्रा या बंसल की।

 

      उस दिन अचानक ही श्रीवास्तवा के यहाँ  उससे मुलाकात हो गयी थी। कुछ देर तो समझ में ही नहीं आया कि मुझे अच्छा लगना चाहिऐ या बुरा। फिर भी वातावरण में कुछ दबा-दबा सा महसूस ज़रूर  होने लगा था और मुझे ख़ुद-ब-ख़ुद  अपने फालतू होने का एहसास होने लगा था। यह कमज़ोरी  मुझमें आज से नहीं, बहुत पहले से है। स्कूल के दिनों में जब अतुल से कुट्टी हो गयी थी तो जिन दोस्तों में वह बैठता वहाँ  प्रायः मैं नहीं जाता था - वर्ना मुझे घनघोर चुप्पी के दायरों में बन्द होकर आकाश और जमीन के बीच अनेक आँख  रेखाऐं खींचने के सिवाय कुछ नहीं सूझता। और इस तरह अकेलेपन का एहसास मुझमें मेरे फालतू होने का विचार बुरी तरह भर देता। आज भी मैं कहाँ बदला हूँ । फिर भी औपचारिकतावश ‘हैलो’ हो गयी थी। मेरे प्रष्न के उत्तर में मणि ने अपने पति की काफी प्रशंसा की थी। और मैंने इसे हिन्दू धर्म के संस्कार मान लिए थे यद्यपि मेरे पास इसके कोई ठोस आधार नहीं थे। श्रीवास्तवा ने भी बताया था कि इससे पहले मणि अपने पति के साथ भी उनके घर आ चुकी है। और इसका पति जो कई साल विदेषों में रह चुका है, बहुत ही उदार और खुले दिमाग का आदमी है। तुम नहीं जानते शायद कि मणि तुम्हारे बारे में उससे बेझिझक बातें कर सकती है। कई मुद्दों पर उसने सराहा भी है। मैंने कनखियों से देखा कि मणि ने अपने बाव्ड बालों में उँगलियाँ घुमानी शुरू कर दी थीं और पहले से अधिक इतमीनान से बैठ गयी थी। उसका चेहरा एक ख़ास किस्म से तन-सा गया था। जबकि मिसेज श्रीवास्तवा बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर बेड-रूम की ओर चली गयी थी और श्रीवास्तवा किसी चीज से अपने दाँत कुरेदने लगा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि उस समय, मुझ पर, सचमुच ही कोई विषेश प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। मणि के प्रति इतना उदासीन भी हो सकता हूँ  - यह मुझे उसी दिन लगा था। दरअसल, इसी वजह से मुझे उसके पति के अच्छे या बुरे होने में कोई ख़ास दिलचस्पी भी नहीं हो रही थी। यूँ मणि ने ही घर छोड़ते समय कहा था कभी - ‘दोस्त तो हम हमेशा  ही रह सकते हैं तुम चाहो तो। कुछ न कर पाने की स्थिति में मैंने ‘धर्मयुग’ का अंक अपनी ओर खींच लिया था और खींचकर ‘भविष्य’ पढ़ने लगा था। यह मेरी आदत में शामिल है जिसे बहुत से दोस्तों ने कई बार टोका भी है। ख़ुद  मणि कहा करती थी कि चार आदमियों में बैठकर किसी अख़बार या मैग्जीन में डूब जाना दूसरों का अपमान होता है। अचानक ही् शरीर में एक सरसराहट-सी हुई और मैंने ‘धर्मयुग’ मेज पर रख दिया था। मणि ने हालाँकि इस समय कुछ नहीं कहा था।

 

      ‘कभी हमारे घर आइये - मेरे पति आपका स्वागत करेंगे - मणि के इस वाक्य से मैं एकदम चौंक गया था। श्रीवास्तवा ने भी लगभग साथ ही साथ कह दिया था - ‘हाँ ! हाँ ! ज़रूर  मिलना - ही इज ए नाइस मेन।’ श्रीवास्तवा की यही आदत मुझे बुरी लगती है। पता नहीं लोग एक-आध मुलाक़ात में ही कैसे किसी के संबंध में धारणा बना लेते हैं। श्रीवास्तवा का बच्चा तो बस किसी एक का पक्ष ले लेता है और फिर उसे ही ‘डिट्टो’ करता रहता है। $#$ं&! मैंने मणि की ओर देखा। मेरी आँखों से उभरे प्रश्न की अभिव्यक्ति से पहले ही उसने जैसे दोहराया था - वे सचमुच स्वागत करेंगे आपका - एक अतिथि या दोस्त की तरह। मैंने सब बताया है उनसे आपके बारे में। वे सचमुच ‘संकीर्ण’ नहीं है। मुझे लगा था कि ‘संकीर्ण’ शब्द का प्रयोग मणि ने जानबूझ कर किया था। यही एक आरोप उसकी मम्मी ने और उसकी वजह से ही ख़ुद  मणि ने भी मुझ पर तब लगाया था जब वह मुझसे अलग हुई थी। लेकिन इस व्यंग से मैं तिलमिलाया नहीं। मैं ख़ुद  नहीं जानता क्यों ? शायद समय का इतना बड़ा अन्तराल व्यक्ति को बदल देता है - या ख़ुद  व्यक्ति को बदलना आ जाता है या अपना होने के बाद जब व्यक्ति अपना कुछ नहीं रह जाता तो उसकी कठोर बातों की भी उपेक्षा कर लेने की शक्ति स्वयं ही उभर आती है। इसीलिए शायद, मैं मणि की बात पर मुस्कुरा कर ही रह गया था। इससे ज्यादा दखल देना मुझे अच्छा भी नहीं लगा। शब्द तो मैं ऐसे में बहुत ही कम बोल पाता हूँ  - यही सोचकर कि कहीं किसी के व्यक्तिगत जीवन में अनाधिकार प्रवेश न कर जाऊँ । दरअसल मैं ख़ुद  अपने जीवन में, किसी दूसरे का दखल, अपनी इच्छा के विरूद्ध कभी बर्दाश्त नहीं करता। यूँ  भी मुझे किसी से ‘ना सुनना बहुत खलता है। इसीलिऐ मैं ख़ुद  ही इस बारे में बहुत सचेत होकर चलने की कोशिश करता हूँ। वर्ना केवल मुस्कुराने के अतिरिक्त मैं यह भी कह सकता था - ‘मणि एक बार सचमुच ही बुलाकर तो देखो। तभी कोई निर्णय लिया जा सकता है। सिद्धान्तों या दूसरों के मामलों में उदार होना एक बात है, व्यवहार में होना अलग। अभी तक तुम्हारे पति ने मुझे देखा नहीं है - मेरी ‘फिजिकल ऐक्जिसटेंस’ उनके दिमाग में अभी घर नहीं कर पायी है। और शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि आज अचानक श्रीवास्तवा के यहाँ  तुम्हारी मुझसे भेंट भी हो सकती है - पुरूष को मैं जानता हूँ  - दरअसल जितना उदार होने की वो डींगें मार सकता है..... अपने मामलों में उससे कहीं ज्यादा संकीर्ण होता है। कोई मजबूरी ही उसे उदार बना दे तो बात अलग है। तब भी कभी-कभी वह अभिनय ही करता है। मौक़ा मिलते ही उसके नाखून ख़ुद -ब-ख़ुद  निकल आते हैं। वर्ना ऐसा कभी न हुआ होता कि चरित्र की सारी पूँजी औरत के नाम कर पुरूष ख़ुद  खुला घूमता रहता। मैंने बहुत से ऐसे लोग देखे हैं जो ‘पुरुष’’ का हाथ लगते ही औरत को ही चरित्रहीन कह देते हैं। तुम नहीं जानती मणि, इसकी वजह औरत की वह शारीरिक सीमा रही है जिसकी वजह से वह ‘माँ’ भी बन जाती है - यानी पुरूष की तरह वह स्वतंत्र नहीं है.... वह अभिव्यक्त हो जाती है। लेकिन यक़ीन मानो जिस दिन औरत भी शारीरिक रूप से पुरष की तरह स्वतंत्र हो जाऐगी या ‘गर्भ-धारण’ को गुनाह समझना बंद कर देगी उस दिन वह पुरूष के एकाधिकार को तोड़ कर उसके बराबर खड़ी हो जाऐगी। मैं नहीं जानता क्यों एक शारीरिक प्रक्रिया को चरित्र की दृश्टि से इतना-इतना महत्व दिया गया है। तुम नहीं देख रही क्या मणि, आजकल बहुत से कारणों से पुरूष का वह एकाधिकार टूट रहा है। मुझे तो लगता है कि किसी के प्रति इससे बड़ा ‘अविश्वास’ और क्या हो सकता है दूसरा व्यक्ति उसकी ज़िन्दगी के हर क्षण पर, अपने लिए महज पुरुष होने की वजह से छूट रखते हुए, सैंसर की तरह बैठ जाए। तुमने भी देखा होगा कि औरतों को – ख़ास तौर पर जवान औरतों को, अकेले तक नहीं जाने दिया जाता। आत्मविश्वास की कमी का इससे बड़ा और क्या कारण हो सकता है। मैं तो मानता हूँ  मणि कि औरत में वह तेज़ होता है जिसकी वजह से, उसकी बिना इच्छा के, उसे कोई छू तक नहीं सकता। यूँ  कमज़ोर तो एक पुरूष भी दूसरे पुरूष की तुलना में हो ही सकता है। मैं नहीं जानता तुम कितनी ठीक हो -शायद तुम्हारे पति उदार हों ही। लेकिन यदि तुम्हारे पति जानते कि आज मैं तुम्हें मिल भी सकता हूँ  तो क्या तब भी वह तुम्हें अकेले आने देते। कभी-कभी ‘पोजेस’ करने की प्रवृत्ति भी आदमी को कितना अंधा बना देती है। वह पूरी चालाकियों के साथ बन्धनों का जाल बुनता चला जाता है। अपने प्रति अविश्वास के इतने बड़े वृत्त में जीते हुऐ भी इसकी पहचान कर लेना कोई आसान काम नहीं होता। क्या सचमुच तुम भी अपने पति से मेरी तरह कह सकती हो कि तुम मुझसे बेहद प्यार करती रही हो - इतना-इतना कि कभी अलग होने की सोच भी नहीं सकते थे। जरा-सा व्यवधान आते ही काँप जाया करते थे और तुम सिमिट आती थी मुझमें। याद करो मणि प्रेम के उन भावुक क्षणों को जब तुम कहा करती थी - ‘कुछ भी हो, कहीं भी रहूँ  -प्यार हमेशा तुम्हारे ही लिए रहेगा।’ हाँ , मणि अपने से अलग किसी दूसरे की सत्ता को स्वीकार लेना इतना आसान नहीं होता। हम हर हाल में इसी कोशिश में रहते हैं कि दूसरों से अलग और श्रेष्ठ दिखें प्रायः ईर्ष्यावश और ऐसे में सिर्फ़ ऊपरी दिखावा होता है - दम्भ, वास्तविक साधना से प्राप्त किया हुआ लक्ष्य नहीं क्यों ? और मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पति इसके ‘अपवाद’ हैं।

 

      मुझे मालूम है कि यह सब मैं कह भी देता तो भी मणि मुझसे सहमति न रखती क्योंकि साफ़ नज़र आ रहा था कि उस समय वह अपने पति को हर हाल उन सभी गुणों से मंडित कर देना चाहती थी जो एक पुरूष को देवता बना सकते हैं। हो सकता है उसका वह पुरूष ‘देवता’ ही हो।

 

      लेकिन श्रीवास्तवा कब पीछा छोड़ने वाला था। वह जानता है कि मैं इतनी जल्दी हार मान जाने वाला व्यक्ति नहीं हूँ । उसने भाँप लिया था कि मैं, मुस्कुरा कर, प्रसंग ही ख़त्म कर देने की ताक में था। सच पूछें तो बात सही भी थी। मैं चाह रहा था कि जल्दी से जल्दी उठ कर चलूँ। मणि को मैं कह नहीं सकता – यूँ वह भी मिसेज श्रीवास्तवा को दो बार कह चुकी थी कि आज उसे जाना चाहिऐ - क्योंकि घर पर उसके पति उसका इन्तेज़ार कर रहे होंगे। लेकिन श्रीवास्तवा और मिसेज श्रीवास्तवा, दोनों ही इस ‘मूड़’ में नहीं थे और इसीलिए वे किसी न किसी प्रसंग को छेड़कर रोकने में सफल होते जा रहे थे। इस बार भी श्रीवास्तवा ही बोला - यार, छोड़ो अब यह सब। मणि और तुम्हारे अलग-अलग रास्ते हो चुके हैं - और मैं देख रहा हूँ  - तुम दोनों ही इस तथ्य को स्वीकार भी कर चुके हो - लेकिन मणि को, जहाँ तक मैं सोच सकता हूँ , तुम्हारे साहित्य से तो चिढ़ नहीं ही होगी। शी वाज युवर फैन। क्यों मणि ?

 

      मणि ने ‘लीची’ का छिलका उतारते हुऐ  एक विषेश मुद्रा में जवाब दिया था - ‘व्यक्ति से ख़ास रिश्ता टूटने की वजह से मैं उसके अन्य पक्षों, मसलन साहित्य से भी विमुख हो जाऊँ , ऐसी मूर्ख तो आप मुझे नहीं ही मानेंगे। यू नो, आई हैव बीन ए स्टूडेन्ट आव लिटरेचर। व्यक्तिगत दुनिया और साहित्यिक दुनिया में ज़रूर  फर्क़ तो रहता ही है न?’

 

      मैंने फिर अपने को यह कहने से रोक लिया था कि मणि साहित्यकार ही जानता है कि अपने साहित्य में बहुत बड़ा अंश वह अपनी ज़िन्दगी से ही काट कर रखता है बशर्ते वह साहित्य का ही सृजन करे। लेकिन चुपचाप श्रीवास्तवा के पैकेट से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी। श्रीवास्तवा ने धूर्त सी हँसी हँसते हुऐ कहा था - ‘तो हो जाऐ यार एक दो तीखी कविताऐं ?’

 

      ‘लेकिन, कविता तो मुझे याद नहीं रहती.... और इस समय कविता सुनाने का मन भी नहीं है।’

 

      ‘अरे छोड़ो भी - मन-वन क्या होता है। इतना नाम कमाया है तूने - कोई घास खोद कर तो नहीं।... अच्छा चल वह कहानी ही सुना दे -- ‘घूमा हुआ दायरा’ - विचित्र कहानी है भई। तीन साल पहले छपी थी तो पढ़ी थी। तभी से भूल नहीं सका हूँ । एक ही चरित्र में कितनी सम्भावनाऐं खोज निकाली हैं तुमने? मेरे पास कब से उसकी एक ‘टाइप्ड’ प्रति पड़ी है - अभी लाता हूँ ।

 

      और मेरे मना करते रहने के बावजूद श्रीवास्तवा थोड़ी ही देर में दूसरे कमरे से मेरी कहानी ढूँढ लाया था। अपने सामने पड़ी हुई कहानी मुझे सचमुच अपनी कृति नहीं लग रही थी। भावुक क्षणों में लिखी गई उस कहानी को इस समय मैं बिल्कुल सुनाने को तैयार नहीं था और वह भी मणि के सामने। मैंने जोर देकर कहा था - ‘श्रीवास्तवा तुम बेकार ज़िद न करो..... आज मैं कुछ नहीं सुनाने का। और अब मुझे जाने की इजाजत दे।’

 

      श्रीवास्तवा थोड़ी देर को भौंचक्का-सा रह गया था। लेकिन जल्दी ही सम्भल भी गया और अपना पुराना वाक्य दोहरा दिया था - ‘तुम आदमी नहीं, घनचक्कर ही हो। तुम्हारा कोई भरोसा नहीं कि कब किसके गले लग जाओ और कब किसे गालियाँ बकने लगो। अपने को साहित्यकार समझते हो और भावुक अनपढ़ों की तरह एक जरा-सी स्थिति का ठीक तरह से मुकाबला नहीं कर सकते। बी प्रेक्टिकल, मैन। तुम मणि की वजह से ही कहानी नहीं सुना रहे न? मैं बताऊँ  क्यों ? क्योंकि तुम मणि के प्रति उदासीन हो बल्कि उसके प्रति एक ‘अव्यक्त घृणा’ समेटे हुऐ। और तुम इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। तुम अपने साहित्य में लिख सकते हो कि ‘परिस्थितियाँ ’ बहुत कुछ करा देती हैं किन्तु ज़िन्दगी में तुमने कभी परिस्थितियों के ‘रोल’ को नहीं समझा। तुमने हमेशा आदमियों को ही दोष दिया है। अब तुम अपने आपको भावुक नहीं मानते जो सरासर झूठ है। भावुकता रोने-पीटने को ही नहीं कहते - भावुकता में इन्सान किसी के इन्सान होने को भी अस्वीकार कर सकता है - सही और सहज को भी झुठलाने का प्रयत्न करने लगता है। तुम ’’

 

      ‘मिस्टर श्रीवास्तव’ मणि ने बीच में ही उसे रोकना चाहा था जबकि मुझे उससे यह सब सुनना कहीं न कहीं अच्छा ही लग रहा था। लेकिन श्रीवास्तव बिना मणि के टोकने की परवाह किए बोलता रहा था - ‘मुझे बोलने दो, मणि। जब यह तुमसे बेहद प्यार करता था तब भी उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था - कम से कम तुमसे झगड़ा कर लेने के बाद और अब जब यह तुमसे ‘विमुख’ है तब भी असलियत स्वीकार नहीं करेगा। पक्का ‘जिद्दी’ है। अपने ही द्वारा निर्मित वृत्त में जीने वाला व्यक्ति - कैसे साहित्य में ‘बाहर’ आ जाता है - यह मेरे लिए शोध का विषय हो चुका है - और इसके लिऐ  बहुत सम्भव है कि मुझे फिर से ‘पी-एच.डी.’ करनी पड़े।

 

      सचमुच, इस बार मुझे हँसी आ गयी थी। वातावरण कुछ हल्का-सा हो आया था। मैं नहीं जानता श्रीवास्तवा ने किस हद तक पहचाना है मुझे। कभी-कभी आदमी चाहता भी नहीं कि वह अपनी पूरी पहचान से वाकिफ़ ही हो। फिर भी मैंने कहा था - ‘कहानी फिर कभी सुन लेना श्रीवास्तवा। और फिर तुमने और भाभी ने तो यह पढ़ी ही हुई है। रही मणिजी की बात तो मुझे उन्हें यह कहानी पढ़वाने में क्या ऐतराज हो सकता है बशर्ते उन्हें यह ज़बरदस्ती न लगे तो। ऐसा नहीं हो सकता कि हम उन्हें यह ‘प्रतिलिपि’ दे दें ये स्वयं पढ़ लेंगी।’

 

      ‘हाँ – हाँ , यह ठीक रहेगा। इस बहाने मैं अपने पति को भी यह ‘कहानी’ पढ़वा दूँगी। ही इज ए ग्रेट मेन। ‘आर्ट’ की बहुत समझ रखते हैं।’ मणि ने शायद वातावरण को हल्का ही बने रहने की इच्छा से कह दिया था।

 

      मुझे फिर हँसी आयी थी कि यह मणि कितनी ‘कॉन्सस  है अपने पति के बारे में। शायद ही कोई बात हो जिसमें यह अपने पति को न घसीट लेती हो। पति को पढ़वाऐंगी - पचा पाऐंगे पति? लेकिन दुनिया में सभी पुरूष एक जैसे तो नहीं होते। और इनके पति तो विदेशों में रहे हैं। सुना है, विदेषों में रह कर व्यक्ति काफ़ी खुले दिमाग का हो जाता है। हो सकता है मणि का पति भी वैसा ही हो। इसीलिऐ  बस इतना भर ही कहा था - ‘पति को पढ़वाने के बाद कहानी की प्रति लौटा देंगी तो अच्छा रहेगा। कभी संकलन छपवाया तो अलग से ‘टाइप’ नहीं करवानी पड़ेगी। और हाँ अपनी और अपने पति की प्रतिक्रिया भी देंगी तो स्वागत करूँगा। हो सके तो।’’

 

      ‘‘ओह श्योर। पढ़ने के बाद हम कहानी को लौटा देंगे - प्रतिक्रिया के साथ।’’ मणि ने निश्चित रूप से गर्व की सी भाषा  के साथ यह वाक्य कहा था।

 

      श्रीवास्तवा समझ गया कि वह अपनी योजना में असफल हो चुकी है – सो मुँह लटकाकर बैठ गया था। इस बार मेरे चलने के लिऐ  किऐ  गऐ  आग्रह पर भी उसने रूकने के लिऐ ज़ोर नहीं दिया। मैं चलने के लिए खड़ा हो चुका था। केवल औपचारिकतावश मणि से पूछ ही लिया था - ‘मणिजी, आप चाहें तो, कार में आपके घर के आसपास छोड़ दूँ ? यूँ आपका घर तो नज़दीक ही है।’

 

      ‘नहीं-नहीं। थैंक्स। मैं चली जाऊँगी.... हाँ, इसका मतलब यह नहीं निकालना कि आपके साथ बैठकर जाने में मुझे किसी की मनाही है। मेरा अपना व्यक्तित्व सुरक्षित है। मेरे पति.....

 

      वाक्य को बिना पूरा सुने ही मैंने हाथ जोड़ दिऐ  थे और सीढ़ियाँ उतर आया था। उतर कर थोड़ी राहत मिली थी। मन में आया ज़रूर  था कि एक बार तो इसके पति से मिलकर देखूँगा ही.... लेकिन? तुरन्त ही दूसरा ख्याल आ खड़ा हुआ था कि यदि उसके पति उस स्थिति को न पचा पाये तो? मणि को मैंने भी करीब से जाना हैं। अगर वह इन दस सालों में नहीं बदली है तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ  कि बहुत मुमकिन है कि उसने पति के बारे में गलत धारणाऐं बना रखी हों। यह बहुत जल्दी ही किसी पर विश्वास कर सकती है। और कोई भी उसे विश्वास में लेने का नाटक रचते हुऐ , उससे सब कुछ उगलवा सकता है। या उसे डराया भी जा सकता है। वह इतनी ‘बोल्ड’ नहीं है कि दूसरे के द्वारा ‘हनन’ को अस्वीकार कर सके हालाँकि ‘बोल्ड’ होने का दावा उसने ज़रूर  हमेशा किया है। वह दूसरों की चालाकियाँ भरी हरकतों को भी अपना हित समझती रही है। अगर एक बार उसके पति को भ्रम हो जाऐ कि मणि की ज़िन्दगी में मेरा प्रवेश हो रहा है तो हो सकता है उसका वह उदार पुरूष इतना-इतना संकीर्ण हो उठे कि वास्तविकता को पहचाने बिना ही अपनी खोल में सिमिट जाऐ  और भयंकर साँप की तरह मणि की ज़िन्दगी को डस लें। तब तक क्या मणि किसी भी तरह उस साँप को कुचलने में सचमुच अपने को समक्ष बना सकी होगी। नहीं, ‘मणि’ को इस प्रकार डसा जाना मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकूँगा।.... लेकिन क्या हक़ है मुझे कि मैं एक अपरिचित व्यक्ति के बारे में, उसके करीब के आदमी द्वारा बनायी गयी धारणाओं को खण्डित भी करूँ। अच्छा ही है यदि उसका पति संकीर्ण नहीं है तो।

 

      मैं चुपचाप घर चला आया था। हालाँकि मुझे लगता रहा था कि मैं यह कहना भूल गया हूँ  कि मणि कभी हमारे घर आओ - हो सके तो अपने पति को लेकर भी, मेरी पत्नी आपका स्वागत करेगी। और मैं सचमुच कह सकता हूँ  कि मेरी पत्नी एकदम संकीर्ण नहीं है। शायद।

 

 

 

 

 

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