रंग से परहेज कैसा
रंग से परहेज कैसा
वह रंगा हुआ था रंगों से
जमाना खेल रहा था
उमंगो से,
दुनिया मना रही थी,
होली का त्योहार
वह रंगा हुआ था,
जिम्मेदारीयों के रंगों से
ख़ुश वह भी था देखकर
दुनियां के रंग बिरंगी रूप को
पर क्यों बैठा था वह दुकान पर
रंग मंचो सा
वह बेच रहा था रंग कई
आते जाते ग्राहकों को
मन ही मन ख़ुश हो लेता
जब भी वह रंग की पुड़िया बेचता
उसकी मासूम सी आँखे
कुछ कह रही थी
पूछ रही थी आने-जाने वाले लोगों से
की बादलों में जो इन्द्रधनुष
सात रंगों को बिखेरता है,
उन रंगों से रंगीन हो जाती है
समस्त सृष्टि
तब मैं माँग लेता हूँ
थोड़े से रंग खुद के लिये
फिर एकत्रित कर लेता हूँ,
उन रंगों को
छोटे-छोटे संपुटों में
निकल पड़ता हूँ,
बाजार की ओर
उन रंगों को कुछ पैसों से बेचने
आँखें मूंद कर बता देता हूँ
मेरी समस्त मजबूरियाँ इंद्रधनुष को
और कहता हूँ,
जब इंद्रधनुष के सात रंग प्रतिदिन
दुनियां को रंगीन करते हैं,
मैं थोड़ा-थोड़ा रंग चुरा लेता हूँ
होली के दिन के लिये और
इस प्रकार,
मैं प्रतिदिन प्रतिक्षा करता हूँ
किसी त्यौहार का,
वह इस त्यौहार को बहुत मानता
शायद इस दिन वह
कुछ ज्यादा कमा पाता है।
या यूँ कहे कि इस दिन
उसका परिवार पेट भर खा पाता है।
तो आओ इस होली पर
चलो एक वादा करें
भर दें खुशी के कुछ पल
किसी गरीब के आँचल में।