जाम तेरे इश्क़ का
जाम तेरे इश्क़ का
रात के अंधेरे में, दिन के उजाले में,
ढूँढे ये नज़रे तुझे, हर एक नज़ारे में,
तेरे इश्क़ के नशे में,
कुछ इस कदर मदहोश है ये दिल,
निकल पड़ता है तुझसे मिलने,
शहर के हर मैखाने में...
कहीं से वो नशा चढ़ जाये,
कहीं से वो सुकून मिल जाये,
जो संग बिताये उन लम्हों में था,
जो ज़िंदगी के पुराने उन पन्नों में था,
पलटता हूँ... बेहकता हूँ...
जाम तेरे इश्क़ का मैं पीता हूँ।
दो बूँद जब हलक से नीचे उतरती है,
खुमारी इश्क़ की और ऊपर चढ़ती है,
जो सिर्फ साँसे लेती थी ज़िंदगी...
दो पल के लिये ही सही,
कमबख्त! ये फिर से जीने लगती है।
कुछ नहीं दिखता सामने तेरे सिवा,
जब पीता हूँ इस दर्द-ए-दिल की दवा,
मुस्कुराती-सी तुम सामने दिखती हो,
भ्रम हो या हकिकत, मालूम नहीं...
पर जो भी हो, दिल को अच्छी लगती हो।
कहता हूँ कुछ, पर तुम कुछ कहती नहीं,
पास बुलाता हूँ, पर तुम आती नहीं,
दूर खड़ी क्यों मुस्कुराती हो?
पास आके क्यों नहीं ये कहती हो?
आँखों से मदिरा अब तुम बहाओ ना...
नशे से इसके तुम अब बहार आओ ना...