जब जब इन झरोंखों से ठंडी हवा मुझे जगाती है
मुझे अपना बचपन और वो सर्दी की धूप याद आती है
वो दिन जब छतों से छतें मिला करती थी
दरी से दरी जोड़कर एक बड़ी बैठक बना करती थी
मूंगफली में बुनते थे किलो के हिसाब
उन्ही के छिलको से बनती गुड़िया लाजवाब
गिलहरी को पकड़ने के थे हज़ारों पैंतरे
पुरानी चादरों से भरे गुनगुने बिस्तरे
तन पर लद जाते लाखों कपड़े
हम भागें और माँ हमें पकड़े
अपनो का साथ ले जाता था दुखों को बहाके
हवाओं में गूंजते बुआ और चाची के ठहाके
स्टापू और गिट्टी नहीं थे कंकर पत्थर
माँ की साड़ी थी और था हमारा 'घर-घर'
बूढ़ी दादी के पल्लू से मिश्री चुराना
सोती नानी को चुपके से ढपक के जगाना
पापा का मनपसंद था गाजर का हलवा
हफ़्तों तक चलता हलवे का सिलसिला
सरसों का साग और मीठा मालपुआ
गाहे बगाहे पेट बन जाता था कुआँ
गिरता पारा और उठती उमंगें
कैसे भूलूँ वो सक्रान्त की पतंगें
लंबी लंबी रातों में आनंद भरी झपकी
अंगीठी की गर्मी और पापा की थपकी
मोज़ो में बुना मेरी नानी का प्यार
छोटी पड़ जाती जो मुझ पर हर बार
माँ की पुरानी शॉल की वो प्यारी गर्मी
पड़ोस की चाची की बातों की वो नरमी
रिश्तों की नर्मी जब थी इस गर्मी से मिलती
मिलने का बहाना ये सर्दी की धूप ही थी बनती
अब ना जाने ऐसा क्या अजब है
ये सर्दी उस सर्दी से कुछ अलग है
रिश्तों की तपन में थोड़ी सी कमी है
जुबां पे सख्ती और धूप में नमी है
दरी के कोने अब मिलते नहीं
कमरों में कैद हैं बैठकें.. अब लोग मिलते नहीं
ऊंची इमारतों ने घरो की जगह जो ली है
धूप क्या अब तो छतें ग़ायब हुई हैं
बदलते रिश्ते हैं और बदल रहें है रुप
और सर्द है सर्दी, न रही सर्दी की वो धूप