“एक नव अंकुर को जिसने, हो जीवन का अधिकार दिया”
“एक नव अंकुर को जिसने, हो जीवन का अधिकार दिया”
एक नव अंकुर को जिसने, हो जीवन का अधिकार दिया
मजबूत इमारत को जिसने, मजबूती से आधार दिया
आँखों की नींदों को जिसने, हो सपनों का संसार दिया
कच्ची मिट्टी के ढेर को जिसने, बर्तन का आकार दिया
मेरे अन्दर के कवि को जिसने, सबसे पहले पहचाना था
मैं कैसे उस पर गीत लिखूँ, जिससे कलम उठाना जाना था
पहले सोचा धरती लिखूँ, फिर उसको हटा दिया मैंने
फिर सोचा भगवान् लिखूँ, उसको भी मिटा दिया मैंने
सोचा पर्वत, सागर, नदियाँ, माँ की उपमा में छोटे हैं
भगवान भी जिसके आँचल में बच्चे बनकर के लोटे हैं
मेरी धड़कन रोम रोम साँसों पर जिसका कर्ज़ा है
भगवान उसे कैसे लिख दूँ , भगवान से ऊँचा दर्ज़ा है