खानाबदोश ज़िन्दगी
खानाबदोश ज़िन्दगी
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खानाबदोश है ज़िन्दगी
जिस ठिकाने पर
रुक जाए
बस वही बसेरा...
न कोई घरबार
न मकान,
न कोई आत्मीय जन...
रूकती
बहती
थमती रहती
जगह-जगह यादे
छोड़ आती
ओर बटोर लाती
वहाँ की भी यादे...
कभी दिल की ज़मीन पर
मिट्टी की तरह बिखर जाती..
तो कभी सजल नयनों से
बह जाती
या फिर सकल व्योम में
सूनापन दिखती
है क्या पता की मेरे आज
का कल क्या होगा...
मिल जाऐगी मिट्टी में
या गुम हो जाऐगी सितारों में.
कौन है भला ढूंढने वाला?
किसको है मेरी प्रतीक्षा??