नफ़ीस गज़ल
नफ़ीस गज़ल
अपनी नादानियों के,
अपनी बदगुमानियों के
नज़ीर पेश करते हो,
इसे किस बिनाह पर
नफ़ीस गज़ल कहते हो ?
क्या भूखा ही रोटी की
गंध पहचानता है,
क्या लंगड़ा ही सहारा
बैसाखी की मांगता है ?
मंटो की फितरत के
मालिक हो,
नज़ीर प्रेमचंद की
पेश करते हो ?
फ़कीर का मन बसा
राज-सिंहासन के पायों में,
जाने फिर क्यों यह
ढ़ोंग करते हो ?
हो अगर बकवास भी
दिलफरेब किस्सा,
क्यों उसी कीचड़ में
धंसते हो ?
नाकामियों को अपने कुछ
और रंग दो,
क्यों उनकी हाज़री से
दम अपना बेदम करते हो ?
आती नहीं खुशबू
बनावटी गुलदस्तों से,
क्यों असली फूलों को
बदनाम करते हों ?
जो हो बस
वही दिखते नहीं,
हो असलियत में कुछ और
कुछ और दिखते हो ?