रु ब रू
रु ब रू
गुमनाम ख़यालों की नज़्में बना
मैं गुनगुना रहा हूँ ,
बड़ी अरसों के बाद खुद से
गुफ़्तगू कर रहा हूँ ।
आहिस्ता से हौले हौले से,
परत दर परत ,बात निकली है,
कभी उनपर रो रहा,
कभी हँसता जा रहा हूँ ।
दिल ना मुकर जाए कुछ कहकर
इन ख़यालों की अदला बदली में
इसीलिए,जमाने से दूर,
चाँद -तारों की गवाही में
कुछ अपनी कह रहा ,
कुछ उसकी सुन रहा हूँ।
गुमनाम ख़यालों की नज़्में बना,
मैं गुनगुना रहा हूँ ।
मगर बात मेरी सुन ना जाने क्यों
दिल कुछ परेशान सा है,
नज़्में जो गुनगुना रहा हूँ,
उससे ,उसे कुछ ऐतराज सा है,
लगता है उसकी बातों से
वो थोड़ा ख़फ़ा ख़फ़ा सा है,
फिर भी बेफ़िक्र सा मैं,
अपनी ही करता जा रहा हूँ,
गुमनाम ख़यालों की नज़्में बना,
मैं गुनगुना रहा हूँ ।
फिर पूछने पर दिल ने बोला,
तेरी कटुता ना रास आ रही,
क्यों हो गया तू कठोर इतना
प्यार तुझमें क्यों बाक़ी ना रही,
इतना जो कहना था इस दिल का,
मैंने तुरंत ही टोक दिया,
कहा, ए दिल ना अब तू मुझे
अपना ग़ुलाम बना पाएगा,
चाहे तू रो ले कितना भी,
ना मुझको पिघला पाएगा।
कहकर इतना दिल को जब मैं,
आइने से रु ब रू हुआ,
देखा ,दिल हो रहा था फिर हावी मुझपर,
इसबार भी ना उसे हरा पाया।