समंदर हो जाती हूँ
समंदर हो जाती हूँ
समंदर हो जाती हूँ
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तुम मदमस्त होकर
मचलते हो
अहं से उफनते हो,
सोचते हो ........
समाना है मुझे
तुम्ही में
मैं!!!
समझती हूँ तुम्हारी
आकुलता,
जानती हूँ नीर से भरे हो
पर कितने प्यासे हो तुम
तुम असयंत से
व्याकुल होकर
तोड़ देते हो तट
पर नहीं आ पाते
पास मेरे.....,
मैं ही आती हूँ
कठिन राहोंं ,पर्वतोंं को
लाँघकर .....
अडिग शिलायेंं खंड खंड
हो जाती है
वेग से मेरे
साथ बह कर
बन जाते है शालिगराम
म्रदु जल लेकर आती हूँ
बुझाने तुम्हारी प्यास ,
प्रीत ही तो है यह मेरी
समर्पण है तुम्हारे लिऐ
चलती हूँ धारा बन
कहाँ से कहाँ तक ....
विलुप्त हो जाती हूँ
मिलकर तुमसे
अस्तित्व मिटा कर अपना
दरिया से मैं समंदर हो जाती हूँ ।