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Ashish Vairagyee

Abstract

4  

Ashish Vairagyee

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चारधाम की यात्रा

चारधाम की यात्रा

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कहीं दूर,

किसी समंदर की कोरों से चिपकी रेत 

नमकीन पानी का स्वाद लिए सीपियाँ 

गाढ़े बादलों से गिरती किरणों के बीच

एक टूटा हुआ जहाज़ दिखता है मुझे 

कहते है लूटरों की आत्मा रहती है उसमे

ये मुझे उस पार लेजाएगा 

एक अंतहीन सफ़र पे।

मीलों फैले घाँस के हरे मैदान और

ऊंचे पेड़ों को खाती अमर बेलें

जहां पानी खुद नहाता है पोखरों में 

वहां मुझे दिखाई देता है पत्थरों से बना

एक विशालकाय प्रचीन दरवाज़ा

जिसमे पल्ले नहीं है वह अडिग खड़ा है

कहते है ये दूसरी दुनिया का द्वार है

ये मुझे उस पार ले जाएगा।

शहर की कोलाहल, मलिन बस्तियों

छोटी छोटी गलियों, विशाल सड़को,

टीनो, छप्परों और बड़े छज्जों के बीच

अकेला खड़ा एक बरगद का पेड़

गौरवपूर्ण, ऐतिहासिक, विशाल तना

और तने में खुलते कई प्रकोष्ठ

कहते हैं पांडवो ने ये पेड़ लगाया था

ये मुझे उसपार ले जाएगा

दूषित मरुभूमि ,रक्तरंजित जो

योद्धाओं की तृष्णा मिटाती है

मंदिरों मस्जिदों से पटी पड़ी ये धरा

ईश्वर का नाम ले ऐश्वर्य खोजती मानवजाति 

और वहीं उसी ज़मीन पे एक काला तालाब है

कहते है पाताल तक जाता है उसका तल

ये मुझे उसपार ले जाएगा

एक टूटा जहाज

एक प्राचीन दरवाज़ा

एक बूढ़ा बरगद का पेड़

और एक स्याह काला तालाब

ईश्वर को खोजने के लिए 

माध्यम तो कुछ भी हो सकता है न!

फिर क्यों मुझे विवश करता है ये समाज 

चारधाम की यात्रा के लिए...


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