अमानव
अमानव
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दुनिया भर की नफरतों ने
मिल कर झूठ के
परिदृश्य में
अपने अस्तित्व को टटोला
कूट-कूट कर भर दिया
मृत्यु की सार्थकता का
ध्रुव दर्शन
सभ्यता का हर कवच
जर्जर हुआ
हत्या, लूट, घर्षण से
मानव मर्मर हुआ
अंधे रास्ते पर
चलती रही मानवीय भीड़
ईर्ष्या, द्वेष और लोभ से
छिन गया है नीड़
जननी जन्मभूमिश्च
एक यथार्थ
अर्थहीन परिकल्पना
बन गई है
सच को सीने में दफनाए
चुपचाप अनीति के साथ रहना
अब आदत बन गई है ।
अमानवीय कोलाहल के
काँटों से
छिदता आत्म सत्य
न्याय के अभाव की भयावह
बाढ़ में दम घुटता धैर्य